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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
लक्ष्मीने उनके घरमें द्विगुण प्रभाके साथ प्रवेश किया ।
सं० १९३० में उनके पिता त्रिकमनीका और सं० १९३२ के कार्तिक वदि ११ के दिन उनके दादा मूलजीका भी देहांत हो गया । दस ही बरसकी आयुमें बालक वसननी निराधार हो गये। उनकी पेढीका काम लखमसी गोविंदजी करने लगे। वे जब कुछ बड़े हुए तब खुद ही कामकाज देखने लगे।
इनके तीन लग्न हुए थे । पहला लग्न शा वालनी वर्द्धमानकी पुत्री श्रीमती खेतबाई के साथ हुआ था। उनसे प्रेमाबाई
और लीलाबाई नामकी दो पुत्रियाँ और शामजीमाई नामके एक पुत्र हुए थे।
दूसरा ब्याह नरसी नाथाके कुटुंबमें श्रीमती रतनबाईके साथ हुआ था । इनसे एक पुत्र मेघनीभाई और एक कन्या लक्ष्मीबाई हुए थे।
तीसरे लग्न ठाकरसी पसाइयाकी पुत्री श्रीमती वालबाईके साथ हुए । इनसे बंकिमचंद्र नामका एक पुत्र हुआ।
सेठ वसनजीभाई बड़े ही उदार सज्जन थे । इनकी सखावत बचपन से ही प्रारंम हुई थी। पन्द्रह हजार रुपये लगाकर उन्होंने बारसीमें और सांएरामें जिनालय बनवाये ।
सं० १९५२ में उन्होंने अपने गरीब जाति भाइयोंको सस्ते मावसे अनाज देनेके लिए एक दुकान खोली थी । इससे
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