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श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन
शिप प्राप्त की । उसीमेंसे पुस्तकें खरीदते थे और स्कूलकी फीस देते थे । इनके पिता इतने विरुद्ध थे कि, घरमें बत्तीके सामने बैठकर पढ़ने भी नहीं देते थे इसलिए ये दिनको सूर्यकी रोशनीमें और रातको सड़कोंके दीपकोंके प्रकाशमें पढ़ते थे । इस तरह पढ़कर ये इंग्लिश, संस्कृत, गुजराती और धर्मके अच्छे पडित हो गये।
जब इनकी बड़ी उम्र हुई तब ये अपना निर्वाह टयुशनोंसे करने लगे । इनकी पत्नी कुछ पढी लिखीं नहीं थी, इसलिए इन्होंने श्रम करके उनको भी धर्म और गुजरातीका अच्छा ज्ञान करा दिया ।
धर्मका इनपर अच्छा रंग चढ़ा और इन्होंने अपनी ३७ बरसकी आयुमें जीवन भरके लिए ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया । इनकी पत्नीने भी अपने पतिका अनुसरण किया। यह व्रत दोनोंने मुनि श्री मोहनलालजी महाराजके पाससे धारण किया था।
ये दीक्षा लेना चाहते थे; परंतु सेठ वीरचंद दीपचंदकी सलाहसे इन्होंने इस विचारको छोड़ दिया और जैनधर्मका विदेशोंमें भी प्रचार करने का निश्चय किया। सेठ वीरचद दीपचंद की सहायतासे ये सं० १९५२ में अमेरिका गये और साढे चार बरस तक वहाँ अहिंसा, योग और अध्यात्मका प्रचार करते रहे । वहाँका खरचा वहीं कमाई करके चलाते थे ।
सं. १९९७ में ये वापिस बंबई लौटे । सं० १९६५ में
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