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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
इनका जन्म सं० १९४६ के पोस महीनेमें हुआ था । ये अपने गाँव में गुजराती छठी क्लास तक पढ़कर जब बनारस यशोविजय जैन पाठशाला में गये तब इसको उम्र बारह बरसकी थी । इन्होंने वहाँ बारह बरस तक अध्ययन किया और जैन न्यायतीर्थ और व्याकरणतीर्थकी कलकत्तेकी परीक्षाएँ पास कीं ।
जब ये पास होकर आये तब इन्हें गोधावीसे, मुनिश्री रत्नविजयजी महाराजको पढ़ानेके लिए आमंत्रण मिला । इन्होंने जाकर मुनिमहाराजको विशेषावश्यक सूत्र पढ़ाया ।
पश्चात अहमदाबाद आये और श्रीभगवती सूत्रका गुजराती भाषांतर करने लगे । उस समय यह माना जाता था कि, सूत्र सिद्धांतोंका प्रचलित मातृभाषाओं में अनुवाद होना बुरा है । इससे जब चारों तरफ, आन्दोलन आरंभ हुआ, तब ये उस कामको बंद कर पाली गये और वहाँपर इन्होंने स्मर्गीय विजयधर्मसूरिजी के शिष्य भक्तिविजयजीको भगवतीसूत्र पढ़ाया ।
वहाँसे ये बंबई आये और भगवती सूत्रके पाँच शतकोंका गुजराती में अनुवाद, उस पर नोट टिप्पणीयाँ वगैरा लगाकर, तैयार किया । यह अनुवाद जैनागम - प्रकाशक सभाने दो भागों में प्रकाशित किया था ।
ये टीका लिखते थे इसी अरसेमें इन्होंने मांगरोल जैनसभा में एक व्याख्यान दिया । व्याख्यानका विषय था- 'जैनसाहित्यमां विकार थवाथी थयेली हानि ' यह व्याख्यान बादमें पुस्तका
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