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जनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
पं० सुखलालजी संघवी
इनके पिताका नाम संघर्जा था। इनका जन्म लींबड़ी ( काठियावाड़) में हुआ था। इनके पिता श्वेतांबर स्थानकवासी जैन थे । बचपनमें ये भी इसी आम्नायको मानते थे; परंतु अब ये श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन आम्नायको मान रहे हैं।
ये जब गुजराती छठी पुस्तक पढ़ चुके थे तब इनको बड़े जोरके चेचक निकले । इसीमें इनकी आँखें चली गई और ये अंधे हो गये । इनका पढ़ना लिखना बंद हो गया। किसी कामके करने लायक न रहे । ये दिनभर स्थानकमें जा बैठते और सामायिक प्रतिक्रमण करते रहते । एक बार स्थानकवासी मुनि श्री उत्तमचंद्रजी महाराज लीबड़ी पधारे । इन्होंने पंडितजीको बुद्धिशाली समझकर सारस्वत व्याकरण पढ़ाया।
फिर ये बनारस गये और यशोविजय जैनपाठशालामें पढने लगे । करीब दो सालके बाद पाठशालाके संचालक आचार्य श्री विजयधर्मसूरिजीके साथ मतभेद हो गया । इसलिए इन्हें और पं० व्रजलालजीको पाठशाला छोड़नी पड़ी। ये दोनों भदेनी घाटपरकी जैनपाठशालामें जाकर रहे । और वहींपर रहकर पंडितोंसे अध्ययन करते रहे । इनके खर्चेकी व्यवस्था उस समय मुनि और हाल आचार्य महाराज श्रीविजयवल्लसरिजीने करा दी थी।
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