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जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध )
बदला तो नहीं चुका सकता; परन्तु अल्प भेट अर्पण कर कुछ सेवा करना चाहता हूँ। यह सेवा स्वीकार कीजिए।"
राजाने चार हजार रुपये सालानाकी आमदनीबाले एक गाँवका पट्टा महाराजके भेट किया। महाराजने कहाः-" मैं आपको इस उदारताके लिए धन्यवाद देता हूँ; मगर मैं तो साधु हूँ। मुझे यह जागीर क्या करनी है ?"
उन्होंने पट्टा वापिस लौटा दिया। राजाने बहुत आग्रह किया; परन्तु महाराजने एक भी बात न मानी । दो चार दिनके वाद महाराज बनेड़े चले आये।
उदयपुरमें साहजी शिवलालजी गरौडिया उस समय प्रधान थे । वे उस समय चाहते सो कर सकते थे ।
उदयपुरकी कसेरोकी ओलमें प्रसिद्ध कावडिया भामाशाहका एक उपासरा था । समयके फेरसे भामाशाहके वंशजोंका सरकारमें कोई प्रभाव नहीं रहा; उपासरेमें भी कोई साधु नहीं रहा, इसलिए उपासरा खालसे हो गया । उपासरेके आधे भागमें दानकी कचहरी बनी और आधे भागमें माजी साहब मेरतणीजीका नोहरा बना। आगेकी कुछ जगह दरीखाना बनानेके लिए रखी गई। ___ एक दिन साहनी शिवलालजी इधरसे होकर निकले तब एक श्रावकने कहा।-" आप लौकेगच्छके हैं और यह उपासरा भी लौकेगच्छका है । इसमेंका यह थोड़ा भाग बाकी रह गया
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