________________
........nnn.comwww
जैनरत्न ( उत्तरार्द्ध) मॅनेजरकी जगहपर रखना स्वीकार कर लिया। इन्हें पालीतानेकी नौकरीसे संस्कृत पढ़नेकी सुविधा मिल सकती थी; परंतु धन कमानेकी सुविधा न थी इसलिए पिताने आज्ञा न दी। ये बड़े धर्मसंकटमें पड़े । ये न पिताकी इच्छाके विरुद्ध पालीताने जा सकते थे और न अपनी इच्छाके विरुद्ध नोकरीही कर सकते थे। परंतु श्रीयुत माणकर्जाभाई और रायमलभाईने इनके पिताको समझाकर इन्हें पालीताने जानेकी आज्ञा दिला दी और ये सं० १९५७ में पालीताने चले गये।
सं. १९९७ में प्रसिद्ध जैन विद्वान फतेहचंद्र कपूरचंद्र लालनसे इनकी मुलाकात हुई । दोनों विद्या-व्यसनी और धर्म एवं जातिसेवाकी भावना रखनेवाले थे इसलिए दोनोंमें दृढ मित्रता हो गई । वह आज तक चली जा रही है।
सं० १९५८ में इन्होंने पं० अमीचंद्रजीसे न्यायके ग्रंथ स्याद्वाद मंजरी और रनावतारिकाका अध्ययन किया । __ इनकी इच्छा थी कि, ये प्रसिद्ध मुनिराजश्री मोहनलालजी महाराजसे धर्मशास्त्रोंका अध्ययन करते; परंतु उनकी यह इच्छा पूरी न हुई । कारण, महाराज साधुके सिवा किसीको पढाना नहीं चाहते थे ।
ये सं० १९५९ में यात्राके लिए गये हुए थे। जब ये बनारसमें पहुंचे तो वहाँ इन्हों सैकड़ों विद्यार्थियोंको हिन्दु धर्मशास्त्रोंका और संस्कृतका अध्ययन करते देखा । उसी समय
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com