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श्वेताम्बर मृतिपूजक नैन सं० १९६२ में मोहनचंद्रनी साहबके पिताका देहांत हो गया । सारे कुटुंबका बोझा इन्हींके सिरपर आ गिरा; मगर इन्हान धीरजके साथ बोझा उठाया, व अपने पिताके व्यापार और धनको बढ़ाया । आज ये वराडके माननीय साहूकारोंमेंस और जैन मुखियाओंमेंसे-एक हैं।
ये अच्छे विचारोंके सज्जन हैं । जातिम घुसे हुए बुरे रिवाजोंको मिटानेकी बड़ी कोशिश किया करते हैं। जब वराड प्रांतिक जैनकॉन्फरंस स्थापित हुई तब आप और आपके भाई 'धर्मचंद्रजी उसके काममें बड़ी ही दिलचस्पी लेते थे । कॉन्फरंसकी तरफसे 'जैनसंसार' निकलता था उसका प्रचार करनेमें दानों भाइयोंने बड़ी महनत की थी। स्वयं भी उसको ५०) म. सालाना देते थे।
उस समय यह निश्चित किया गया था कि, जैनसंसार को स्थायी बनानेके लिए दस हजारकी पूंजी लगाकर एक प्रेम खेल लिया जाय। ढाई ढाई सौके शेअर निकाले जायँ और वराके धनिक जैनोंसे शेअर भराये जायँ । अगर दैवयोगसे कभी प्रेस बंध करना पड़े तो उसकी सम्पत्तिके मालिक शेअर होल्डर्स हों । तदनुसार शेअर भरानेका काम आरंभ हुआ। मेरे (कृष्णलाल वाके ) साथ सेठ मोहनचंद्रजी साहब भी अपना काम हर्जकर धनिक लोगोंके पास शेअर भरानेके लिए जाते थे । खुदने भी एक शेअर लिया था । एक जगह एक सेठ बोले,-" निकम्मे
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