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जैन रत्न
पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिति (प्रौव्य ) स्वभाववाले प्रमाणित होते हैं । जिसका उत्पाद, विनाश होता है उसको जैनशास्त्र ‘पर्याय' कहते हैं । जो मूल वस्तु सदा स्थायी है, वह 'द्रव्य' के नामसे पुकारी जाती है । द्रव्यसे ( मूल वस्तुरूपसे ) प्रत्येक पदार्थ नित्य है, और पर्यायसे अनित्य है। इस तरह प्रत्येक पदार्थको न एकान्त नित्य और न एकान्त अनित्य, बल्के नित्यानित्यरूपसे मानना ही 'म्याद्वाद' है।
इसके सिवा एक वस्तुके प्रति · अस्ति' 'नास्ति' का संबंध भी-जैसा कि ऊपर कहा गया है-ध्यान रखना चाहिए । घट ( प्रत्येक पदार्थ ) अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे 'सत् ' है
और दूसरेके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे ' असत् ' है । जैसेवर्षाऋतमें, काशीमें जो मिट्टीका काला घडा बना है वह द्रव्यसे मिट्टीका है-मृत्तिकारूप है,: जलरूप नहीं है; क्षेत्रसे बनारसका है, दूसरे क्षेत्रोंका नहीं है; कालसे वर्षा ऋतुका है दूसरी ऋतुओंका नहीं है और भावसे काले वर्णवाला है अन्य वर्णका नहीं है । संक्षेपमें यह है, कि प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपहीसे · अस्ति' कही जा सकती है दूमरेके स्वरूपसे नहीं । जब वस्तु दूसरेके स्वरूपसे । अस्ति ' नहीं कहलाती है तब उसके विपरीत कहलायगी । यानी · नास्ति'।
स्याद्वादका एक उदाहरण और देंगे। वस्तुमात्रमें सामान्य और विशेष ऐसे दो धर्म होते हैं । सौ ‘घड़े होते हैं उनमें 'घड़ा' 'घड़ा' ऐसी एक प्रकारकी जो बुद्धि उत्पन्न होती है, वह यह बताती है कि तमाम
१--विज्ञानशास्त्र भी कहता है कि, मूलप्रकृति ध्रुव-स्थिर है और उससे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ उसके रूपान्तर-परिणामान्तर हैं। इस तरह उत्पादविनाश और प्रौव्यके जैनसिद्धान्तका, विज्ञान ( Science ) भी पूर्णतया समर्थन करता है ।
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