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जैन-दर्शन
५६३ शब्द-इस नयका काम है-अनेक पर्यायशब्दोंका एक अर्थ मानना । यह नय बताता है कि, 'कपड़ा ' 'वस्त्र' 'वसन'
आदि शब्दोंका अर्थ एक ही है। __समभिरूढ-इस नयकी पद्धति है-पर्यायशब्दोंके भेदसे अर्थका भेद मानना । यह नय कहता है, कि, कुंभ, कलश, घट आदि शब्द भिन्न अर्थवाले हैं, क्योंकि कुंभ, कलश, घट आदि शब्द यदि भिन्न अर्थवाले न हों तो घट, पट, अश्व आदि शब्द भी भिन्न अर्थवाले न होने चाहिएँ; इसलिए शब्दके भेदसे अर्थका भेद है । ___ एवंभूत-इस नयकी दृष्टि से शब्द, अपने अर्थका वाचक ( कहनेवाला ) उस समय होता है, जिस समय वह अर्थ-पदार्थ उस शब्दकी व्युत्पत्तिमेंसे क्रियाका जो भाव निकलता हो, उस क्रिया प्रवर्ता हुआ हो । जैसे—गो' शब्दकी व्युत्पत्ति है. गच्छतीति गौः " अर्थात् जो गमन करता है उसे गो कहते हैं; मगर वह 'गो' शब्द इस नयके अभिप्रायसे-प्रत्येक गऊका वाचक नहीं हो सकता है; किन्तु केवल गमन-क्रियामें प्रवृत्त-चलती हुईगायका ही वाचक हो सकता है । इस नयका कथन है कि, शब्दकी व्युत्पत्तिके अनुमार ही यदि उमका अर्थ होता है तो उस अर्थको वह शब्द कह सकता है।
यह बात भली प्रकारसे समझा कर कही जा चुकी है कि ये सातों नये एक प्रकारके दृष्टिबिन्दु हैं। अपनी अपनी मर्यादामें स्थित रहकर, अन्य दृष्टिबिन्दुओं का खंडन न करनेहीमें नयोंकी साधुता है। मध्यस्थ पुरुष मब नयोंको भिन्न भिन्न दृष्टि से मान दे कर
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