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जैन-रत्न
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क्रियाएँ करता रहता है, इसलिए वह कर्ता है । इस प्रकारसे कर्तृत्ववाद (जगत्कर्तृत्ववाद ) की व्यवस्था हो सकती है। आगे और भी लिखा है किः" शास्त्रकारा महात्मानः प्रायो वीतस्पृहा मवे ।
सत्त्वार्थसंप्रवृत्ताश्च कथं तेऽयुक्तमाषिणः ॥" " अभिप्रायस्ततस्तेषां सम्यग्मृग्यो हितैषिणा ।
न्यायशास्त्राविरोधेन यथाऽऽह मनुरप्यदः " ॥ " आर्ष च धर्मशास्त्रं च वेदशास्त्राविरोधिना ।
यस्तāणानुसन्धत्ते स धर्म वेद नेतरः ॥ भावार्थ-जहाँ ईश्वर जगत्कर्ता बताया गया हो, वहाँ उक्त अभिप्रायहीसे उसको कर्ता समझना चाहिए । परमार्थ दृष्टिसे कोई भी शास्त्रकर्ता ईश्वरको जगत्कर्ता नहीं बता सकता है । क्योंकि शास्त्र बनानेवाले ऋषि-महात्मा प्रायः परमार्थदृष्टिवाले और लोकोपकारक. वृत्तिवाले होते हैं, इस लिए वे अयुक्त-प्रमाणबाधित उपदेश नहीं दे सकते हैं । इसलिए उनके कथनोंके रहस्यको जानना चाहिए। खोजना चाहिए कि उन्होंने अमुक बात किस आशयसे कही है। __इसके बाद कपिलके प्रकृतिवादकी समीक्षा आती है। सांख्यमतानुप्सारी विद्वानोंने प्रकृतिवादकी जो विवेचना की है, उससे असंतोष प्रकट कर उन्होंने प्रकृतिवादमें कपिलका 'क्या आशय है उसका प्रतिपादन किया है । अन्तमें वे लिखते हैं कि:
"एवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हि स महामुनिः ॥"
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