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जैन-रत्न
हैं
तत्त्वक्षेत्रकी विशाल सीमाका अवलोकन करते हैं। इसीलिए वे, राग-द्वेषकी बाधा न होनेसे, आत्माकी निर्मल दशा प्राप्त कर सकते हैं।'
जैनदृष्टिकी उदारता। ऊपर स्याद्वादका कथन किया जा चुका है । उसको पढ़कर पाठक यह समझ गये होंगे कि विविध दृष्टिबिन्दुओंसे वस्तुका निरीक्षण करनेकी शिक्षा देनेवाला जैनधर्म कितना उदार है। जैनधर्मकी जितनी शिक्षाएँ हैं, जितने उपदेश हैं उन सबका साध्यबिन्दु-अन्तिम ध्येय राग-द्वेषको नष्ट करना है । अत-एव जैनधर्म के प्रचारक मापुरुषोंने तत्त्वविवेचनमें किसी प्रकारका पक्षपात न कर मध्यस्थ भाव रखे हैं। उनके ग्रंथ इस बातके प्रमाण हैं। उन्होंने सबसे पहिले यह उपदेश दिया है कि-" किसी तत्त्वमार्गको ग्रहण करनेके पहिले, शुद्ध हृदयसे और तटस्थदृष्टिसे, उसका खूब विचार कर लो।" उनके लेखोंमें, किसी भी दर्शनके सिद्धान्तको एकदम नष्ट करनेकी संकुचित वृत्ति नहीं है । उनके ग्रंथ बताते हैं कि, उनका लक्ष्य प्रत्येक सिद्धान्तका समन्वय करनेकी ओर रहा है । ' शास्त्रवार्तासमुच्चय' नामक ग्रंथ देखो। उस ग्रंथमें हमारे कथनका प्रमाण मिलेगा । इस ग्रंथमें ईश्वर जगत्कर्ता नहीं है' इस बातको सिद्ध करनेके बाद लिखा गया है कि,
१ 'नय ' का विषय गंभीर है । इसके अंदर भिन्न भिन्न अनेक व्याख्याएं समाविष्ट हैं । उमास्वाति महाराजकृत तत्त्वार्थसूत्र और यशोविजयजी उपाध्यायकृत नयप्रदीप, नयोपदेश नयरहस्य आदि तथा अन्य अनेक ग्रन्थोंसे यह विषय विशेषरूपसे-स्पष्टतया समझमें आ सकता है।
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