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जैन- दर्शन
इन चार वचन प्रकारोंसे अन्य तीन वचन - प्रयोग भी उत्पन्न
किये जा सकते हैं ।
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पाँचवाँ वचन - प्रकार - " अमुक अपेक्षासे घट अनित्य होनेके साथ ही अवक्तव्य भी है । "
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छठा वचन - प्रकार –" असुक अपेक्षासे घट नित्य होनेके साथ ही अवक्तव्य भी है । "
सातवाँ वचन - प्रकार - " अमुक अपेक्षासे नित्य - अनित्य होनेके साथ ही अवक्तव्य भी है । "
सामान्यतया, घटका तीन तरहसे - नित्य, अनित्य और अवक्तव्यरूपसे - विचार किया जा चुका है। इन तीन वचन प्रकारों को उक्त चार वचन-प्रकारोंके साथ मिला देनेसे सात वचनप्रकार होते हैं । इन सात वचन - प्रकारोंको जैन ' सप्तभंगी ' कहते हैं । सप्त' यानी सात, और 'भंग' यानी वचनप्रकार । अर्थात् सात वचन - प्रकार के समूहको सप्तभंगी कहते हैं । इन सातों वचन प्रयोगोंको भिन्न भिन्न अपेक्षासे - भिन्न भिन्न दृष्टिसे - समझना चाहिए। किसी भी वचनप्रकारको एकान्त दृष्टि से नहीं मानना चाहिए । यह बात तो सरलता से समझ में आ सकती है कि, यदि एक वचन - प्रकारको एकान्तदृष्टि से मानेंगे तो दूसरे वचनप्रकार असत्य हो जायँगे । '
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१ " सर्वत्राऽऽयं ध्वनिर्विधिप्रतिषेधाभ्यां स्वार्थमभिदधानः सप्तभङ्गीमनुगच्छति ॥ " एकत्र वस्तुनि एकैकधर्मपर्यनुयोगवशाद् अविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्प्रयोगः सप्तभङ्गी ।”
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स्यादस्त्येव सर्वम् इति विधिकल्पनया प्रथमो भङ्गः ।
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स्याद् नास्त्येव सर्वम्, इति निषेधकल्पनया द्वितीयः । "
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