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जैन- दर्शन
कहलाता है । वस्तुके अमुक अंशके ज्ञानको 'नय' कहते हैं और उस अमुक अंशके ज्ञानको प्रकाशित करनेवाला वाक्य ' नयवाक्य ' कहलाता है । इन प्रमाणवाक्यों और नयवाक्योंको सात विभागामें बाँटनेहीका नाम ' सप्तभंगी ' है ।'
प्रमाणकी व्याख्या 'न्यायपरिभाषा ' में आ चुकी है । अब नयका : थोडासा वर्णन किया जायगा ।
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नय ।
एक ही वस्तुके विषयमें भिन्न भिन्न दृष्टिबिन्दुओं से, उत्पन्न होनेवाले भिन्न भिन्न यथार्थ अभिप्रायोंको ' नय' कहते हैं । एक ही ' भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से काका, मामा, भतीजा, भानजा, मनुष्य भाई, पुत्र, पिता, ससुर और जमाई समझा जाता है, सो यह 'नय' के सिवा और कुछ नहीं है। हम यह बता चुके हैं, कि वस्तुमें एक ही धर्म नहीं है । अनेक धर्मवाली वस्तुमें अमुक धर्मसे संबंध रखनेवाला जो अभिप्राय बँधता है उसको जैनशास्त्रोंने 'नय ' संज्ञा दी है । वस्तुमें जितने धर्म हैं और उससे संबंध रखनेवाले जितने अभिप्राय - वे सब ' नय' कहलाते हैं ।
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हैं
।
एक ही घट वस्तु, मूल द्रव्य - मिट्टीकी अपेक्षा विनाशी नहीं है: नित्य है । परन्तु घटके आकाररूप परिणामकी दृष्टिसे विनाशी है ।
१ – यह विषय अत्यंत गहन है; विस्तृत है । सप्तभंगीतरंगिणीनामा जैन तर्कग्रंथमें इस विषयका प्रतिपादन किया गया है । 'सम्मतिप्रकरण' आदि - जैन-न्यायशास्त्रोंमें भी इस विषयका बहुत गंभीरता से विचार किया गया है ।
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