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जैन- दर्शन
लगने से, कुछ कष्ट नहीं होगा, जैसे कि एक आदमीको आघात पहुँचा - नेसे दूसरे आदमीको कष्ट नहीं होता है; परन्तु आबाल-वृद्धका यह अनुभव है कि, शरीर पर आघात होनेसे आत्माको उसकी वेदना होती है । इसलिए किसी अंशमें आत्मा और शरीरका अभेद भी मानना चाहिए । अर्थात् शरीर और आत्मा भिन्न होने के साथ ही कथंचित् अभिन्न भी हैं । इस स्थितिमें जिस दृष्टि से आत्मा और शरीर भिन्न हैं वह, और जिस दृष्टिसे आत्मा और शरीर अभिन्न हैं वह, दोनों दृष्टियाँ ' नय ' कहलाती हैं ।
जो अभिप्राय, ज्ञानसे मोक्ष होना बताता है, वह 'ज्ञाननय ' है और जो अभिप्राय क्रियासे मोक्षसिद्धि बताता है वह ' क्रियानय ' है । ये दोनों अभिप्राय ' नय ' हैं ।
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बाह्य
जो दृष्टि, वस्तुकी तात्त्विकस्थितिको अर्थात् वस्तुके मूलस्वरूपको स्पर्श करनेवाली है, वह ' निश्चयनय' है और जो दृष्टि वस्तुकी अवस्थाकी ओर लक्ष खींचती है वह ' व्यवहारनय' है । निश्चयन बताता है कि आत्मा ( संसारी जीव ) शुद्ध - बुद्ध - निरंजन - सच्चिदानंदमय है और व्यवहार नय बताता है कि आत्मा, कर्मबद्ध अवस्थामें मोहवान् - अविद्यावान् है । इस तरह के निश्चय और व्यवहार के अनेक उदाहरण हैं ।
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अभिप्राय बतानेवाले शब्द, वाक्य, शास्त्र या सिद्धान्त सब नय ' कहलाते हैं | उक्त नय अपनी मर्यादामें माननीय है । परन्तु यदि वे एक दूसरेको असत्य ठहराने के लिए तत्पर होते हैं तो अमान्य हो जाते हैं । जैसे - ज्ञानसे मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त, और क्रियासे मुक्ति बतानेवाला सिद्धान्त - ये दोनों सिद्धान्त, स्वपक्षका
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