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जैन-रत्न
१--" इच्छन् प्रधानं सत्त्वाद्यैर्विरुद्धैर्गुम्फितं गुणैः। सांख्यः संख्यावतां मुख्यो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥
-हेमचन्द्राचार्यकृत वीतरागस्तोत्र । २--" चित्रमेकमनेकं च रूपं प्रामाणिकं वदन् । योगो वैशेषिको वापि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् "
_ --हेमचन्द्राचार्यकृत वीतरागस्तोत्र । भावार्थ-नैयायिक और वैशेषिक एक चित्र रूप मानते हैं । जिसमें अनेक वर्ण होते हैं उसे चित्र रूप कहते हैं। इसको एकरूप और अनेकरूप कहना यह स्याद्वादकी सीमा है। ३–“विज्ञानस्यैकमाकारं नानाऽऽकारकरम्बितम् । इच्छंस्तथागतः प्राज्ञो नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥
-हेमचन्द्राचार्यकृत वीतरागस्तोत्र । ४-"जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु वदन्ननुभवोचितम् ।
भट्टो वापि मुरारिर्वा नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥ "अबद्धं परमार्थेन बद्धं च व्यवहारतः ।। ब्रुवाणो ब्रह्मवेदान्ती नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् " ॥ "ब्रुवाणा भिन्नभिन्नार्थान् नयभेदव्यपेक्षया ॥ प्रतिक्षिपेयु! वेदाः स्याद्वादं सार्वतान्त्रिकम् ॥
-यशोविजयजीकृत अध्यात्मोपनिषद् । भावार्थ- " जाति और व्यक्ति इन दो रूपोंसे वस्तुको बतानेवाले भट्ट और मुरारि स्याद्वादकी उपेक्षा नहीं कर सकते हैं । " " आत्माको व्यवहारसे बद्ध और परमार्थसे अबद्ध माननेवाले ब्रह्मवादी स्याद्वादका तिरस्कार नहीं कर सकते हैं।" " भिन्न भिन्न नयोंकी विवक्षासे भिन्न भिन्न अर्थाका प्रतिपादन करनेवाले वेद सर्वतन्त्रसिद्ध स्याद्वादको धिक्कार नहीं दे सकते हैं ।
५ यह ध्यानमें रखना चाहिए कि इस तरह माननेमें भी आत्माकी गरज पूरी नहीं होती है । और इस लिए आत्मसिद्धिके ग्रंथ देखने चाहिएँ । स्याद्वादके संबंध चार्वाककी सम्मति लेनी चाहिए या नाहीं, इस विषयमें हेमचंद्राचार्य वीतरागस्तोत्रमें लिखते हैं कि:
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