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जैन-रत्न
भी जरूर आना चाहिए कि जिससे उस वस्तु के अंदर रहे हुए अनित्यत्व धर्मका अभाव मालम न हो । इसी तरह किसी वस्तुको अनित्य बताने में भी ऐसा शब्द अंदर रखना चाहिए कि जिससे उस वस्तुगत नित्यत्वका अभाव सूचित न हो । संस्कृत भाषामें ऐसा शब्द 'स्यात् । है । ' स्यात् ' शब्दका अर्थ होता है 'अमुक अपेक्षासे' । 'स्यात् । शब्द अथवा इसीका अर्थवाची 'कथंचित् शब्द' या 'अमुक अपेक्षासे' वाक्य जोड़कर 'स्यादनित्य एव घटः" घट अमुक अपेक्षासे अनित्य ही है, इस तरह विवेचन करनेसे, घटमें अमुक अन्य अपेक्षासे जो नित्यत्वधर्म रहा हुआ है, उसमें बाधा नहीं पहुँचती है । इससे यह समझमें आ जाता है कि वस्तु. स्वरूपके अनुसार शब्दोंका प्रयोग कैसे करना चाहिए । जैनशास्त्रकार कहते हैं कि वस्तुके प्रत्येक धर्मके विधान और निषेधसे संबंध रखनेवाले शब्दप्रयोग सात प्रकारके हैं । उदाहरणार्थ हम ‘घट' को लेकर इसके अनित्यधर्मका विचार करेंगे।
प्रथम शब्दप्रयोग " यह निश्चित है कि घट अनित्य है; मगर वह अमुक अपेक्षासे ।" इस वाक्यते अमुक दृष्टिसे घटमें मुख्यतया अनित्यधर्मका विधान होता है। ..दूसरा शब्दप्रयोग-" यह निःसन्देह है कि घट अनित्यधर्मरहित है, मगर अमुक अपेक्षासे " इस वाक्यद्वार। घटमें, अमुक अपेक्षासे, अनित्यधर्मका मुख्यतया निषेध किया गया है। १--इसी तरह ‘अस्तित्व' आदि धर्मोमें भी समझ लेना चाहिए ।
२--'स्यात् ' शब्द या उसीका अर्थवाची दूसरा शब्द जोड़े विना भी वचनव्यवहार होता है; मगर व्युत्पन्न पुरुषको सर्वत्र अनेकान्त--दृष्टिका अनुसंधान रहा करता है।
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