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जैन - रत्न
जो संशय के स्वरूपको अच्छी तरह समझते हैं, वे स्याद्वादको संशयवाद कहने का कभी साहस नहीं करते। कई बार रातमें, काली रस्सी को देखकर संदेह होता है कि-" यह सर्प है या रस्सी ? " दूरसे वृक्षके ढूँठको देखकर संदेह होता है कि - " यह मनुष्य या वृक्ष ? " ऐसी संशयकी अनेक बातें हैं, जिनका हम कई बार अनुभव करते हैं । इस संशय में सर्प और रस्सी अथवा वृक्ष और मनुष्य दोनोंसे एक भी वस्तु निश्चित नहीं होती है । पदार्थका ठीक तरह से समझमें न आना ही संशय है । क्या कोई स्याद्वाद में इस तरहका संशय बता सकता है ? स्याद्वाद कहता है कि, एक ही वस्तुको भिन्न भिन्न अपेक्षासे; अनेक तरहसे देखो । एक ही वस्तु अमुक अपेक्षासे ' अस्ति' है यह निश्चित बात है; और अमुक अपेक्षासे ' नास्ति है, यह भी बात निश्चित है । इसी तरह, एक वस्तु अमुक दृष्टि से नित्यस्वरूप भी निश्चित है और अमुक दृष्टिसे अनित्यस्वरूप भी निश्चित है । इस तरह एक ही पदार्थको, परस्पर में विरुद्ध मालूम होनेवाले दो धर्मोंसहित होने का जो निश्चय करना है, वही स्याद्वाद है । इस स्याद्वादको 'संशयवाद' कहना मानो प्रकाशको अंधकार बताना है । अस्त्येव घटः स्यादू स्यादू नास्त्येव घटः । "
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नित्य स्याद् एव घट: स्याद्वाद के ' एव 'कार युक्त
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स्याद् अनित्य एव घटः । इन वाक्योंमें- अमुके अपेक्षासे घट
१ - - वास्तव में विरुद्ध नहीं ।
२--— स्यात् ' शब्दका अर्थ होता है-अमुक अपेक्षासे । ( सप्तभङ्कीमें, आगे इसका विशेष विवेचन है ) विशाल दृष्टिसे दर्शनशास्त्रोंका अवलोकन करनेवाले भली प्रकार से समझ सकते हैं कि, प्रत्येक दर्शनकारको 'स्याद्वाद सिद्धान्त ' स्वीकारना पड़ा है । सत्त्व, रज और तम इन तीन परस्पर विरुद्ध गुणवाली प्रकृतिको माननेवाला
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