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जैन- दर्शन
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सत्' ही है और अमुक अपेक्षासे घट ' असत् ' ही है । अमुक अपेक्षा से घट ' नित्य' ही है और अमुक अपेक्षासे घट ' अनित्य ' ही है - इस प्रकार निश्चयात्मक अर्थ समझना चाहिए । ' स्यात् ' शब्दका अर्थ - ' कदाचित् ' ' शायद ' या इसी प्रकारके दूसरे संशयात्मक शब्दों से नहीं करना चाहिए । निश्चयवादमें संशयात्मक शब्दका क्या काम ? घटको घटरूप से समझना जितना यथार्थ है - निश्चयरूप है, उतना ही यथार्थ - निश्चयरूप, घटको अमुक अमुक दृष्टिसे अनित्य और नित्य दोनोंरूपसे, समझना । इससे स्याद्वाद अव्यवस्थित या अस्थिर सिद्धान्त भी नहीं कहा जा सकता है |
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अत्र वस्तुके प्रत्येक धर्ममें स्याद्वाद की विवेचना, जिसको 'सप्तभङ्गी' कहते हैं, की जाती है ।
सांख्यदर्शन; पृथ्वीको परमाणुरूपसे नित्य और स्थूलरूप से अनित्य माननेवाला तथा द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व आदि धर्मोका सामान्य और विशेषरूपसे स्वीकार करनेवाली नैयायिक, वैशेषिक दर्शन; अनेक वर्णयुक्त वस्तु के अनेकवर्णाकारवाले एक चित्र - ज्ञानको–जिसमें अनेक विरूद्ध वर्ण प्रतिभासित होते हैं -- माननेवाला बौद्ध दर्शन; प्रमाता, प्रमिति और प्रमेय आकारवाले एक ज्ञानको, जो उन तीन पदार्थों का प्रतिभासरूप है, मंजूर करनेवाला मीमांसक दर्शन और ऐसे ही प्रकारान्तरसे दूसरे भी स्याद्वादको अर्थतः स्वीकार करते हैं । अन्तमें चार्वाकको भी स्याद्वादकी आज्ञामें बंधना पड़ा है । जैसे-- पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार तत्त्वोंके सिवा पाँचवाँ तत्त्व चार्वाक नहीं मानते । इसलिए चार तत्त्वों से उत्पन्न होनेवाले चैतन्यको चार्वाक तत्त्वों से अलग नहीं मान सकता है । चार्वाक यह भी जानता है कि, चैतन्यको पृथिव्यादिप्रत्येकतत्त्वरूप माना जाय तो घटादि पदार्थोंके चेतन बन जानेका दोष आ जाता है । अत एव चार्वाकका यह कथन है या चार्वाकको यह कहना चाहिए कि – चैतन्य, पृथिव्यादि अनेकतत्त्वरूप है । इस तरह एक चैतन्यको अनेकवस्तुरूप- अनेकतत्त्वात्मक मानना यह स्याद्वादही की मुद्रा है।
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