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जैन-दर्शन
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~~~~~~~~~~~ घडोंमें सामान्यधर्म–एकरूपता है। मगर लोग उनमें से अपने भिन्न भिन्न घड़े जब पहिचान कर उठा लेते हैं, तब यह मालूम होता है कि प्रत्येक घड़ेमें कुछ न कुछ पहिचानका चिन्ह है, यानी भिन्नता है। यह भिन्नता ही उनका विशेष-धर्म है। इस तरह सारे पदार्थोंमें सामान्य और विशेष धर्म हैं। ये दोनों धर्म सापेक्ष हैं; वस्तुसे अभिन्न हैं । अतः प्रत्येक वस्तुको सामान्य और विशेष धर्मवाली समझना ही स्याद्वाददर्शन है। ___ स्याद्वादके संबंधमें कुछ लोग कहते हैं कि, यह संशयवाद है निश्चयवाद नहीं । एक पदार्थको नित्य भी समझना और अनित्य भी, अथवा एक ही वस्तुको ‘सत् ' भी मानना और ' असत् ' भी मानना संशयवाद नहीं है तो और क्या है ! मगर विचारक लोगोंको यह कथन-यह प्रश्न अयुक्त जान पड़ता है।
--स्याद्वादके विषयमें तार्किकोंकी तर्कणाएँ अतिप्रबल हैं । हरिभद्रसूरिने 'अनेकान्तजयपताका' में इस विषयका प्रौढताके साथ विवेचन किया है। ___ २-गुजरातके प्रसिद्ध विद्वान् प्रो० आनंदशंकर ध्रुवने अपने एक व्याख्यानमें स्याद्वादके संबंधमें कहा था:--" स्याद्वादका सिद्धान्त अनेक सिद्धान्तोंको देखकर उनका समन्वय करनेके लिए प्रकट किया गया है । स्याद्वाद हमारे सामने एकीभावका दृष्टिबिन्दु उपस्थित करता है । शंकराचार्यने स्याद्वादके ऊपर जो आक्षेप किया है, उसका, मूल रहस्यके साथ कोई संबंध नहीं है । यह निश्चय है कि विविधदृष्टिबिन्दुओं द्वारा निरीक्षण किये विना किसी वस्तुका सपूर्ण स्वरूप समझमें नहीं आ सकता है । इसलिए स्याद्वाद उपयोगी और सार्थक है । महावीरके सिद्धान्तोंमें बताये गये स्याद्वादको कई संशयवाद बताते हैं। मगर मैं यह बात नहीं मानता । स्याद्वाद संशयवाद नहीं है। यह हमको एक मार्ग बताता है-यह हमें सिखाता है कि विश्वका अवलोकन किस तरह करना चाहिए। ___ काशीके स्वर्गीय महामहोपाध्याय राममिश्रशास्त्रीने स्याद्वादके लिए अपना
जो उत्तम अभिप्राय दिया था उसके लिए उनका 'सुजन-सम्मेलन' शीर्षक व्याख्यान देखना चाहिए।
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