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जैन-दर्शन
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परमाणु-संघात, दूसरा रूप पा जानेसे, दीपक-रूपमें न दीखकर, अंधकार-रूपमें दीखता है; अन्धकार रूपमें उसका अनुभव होता हैं । सूर्यको किरणोंसे पानीको सूखा हुआ देखकर, यह नहीं समझ लेना चाहिए कि पानीका अत्यंत अभाव हो गया है । पानी, चाहे किसी रूपमें क्यों न हो, बराबर स्थित है । यह हो सकता है कि, किसी वस्तुका स्थूलरूप नष्ट हो जाने पर उसका सूक्ष्मरूप दिखाई न दे, मगर यह नहीं हो सकता कि उसका सर्वथा अभाव ही हो जाय । यह सिद्धान्त अटल है कि न कोई मूल वस्तु नवीन उत्पन्न होती है और न किसी मूल वस्तुका सर्वथा नाश ही होता है । दूधसे बना हुआ दही, नवीन उत्पन्न नहीं हुआ। यह दूधहीका परिणाम है । इस बातको सब जानते हैं कि दुग्धरूपसे नष्ट होकर दही रूपमें आनेवाला पदार्थ भी दुग्धहीकी तरह · गोरस' कहलाता है। अत-एव गोरसका त्यागी दुग्ध और दही दोनों चीजें नहीं खा सकता है । इससे दूध और दहीमें जो साम्य है वह अच्छी तरह अनुभवमें आ सकता है। इसी प्रकार सब जगह समझना चाहिए कि, मूलतत्त्व सदा स्थिर रहते हैं, और इसमें जो अनेक परिवर्तन होते रहते हैं। यानी पूर्वपरिणामका नाश और नवीन परिणामका प्रादुर्भाव होता रहता है, वह विनाश और उत्पाद है । इससे, सारे १--" पयोत्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् " ॥
--शास्त्रवार्तासमुच्चय, हरिभद्रसूरि । “ उत्पन्नं दधिभावेन नष्टं दुग्धतया पयः। गोरसत्वात् स्थिरं जानन् स्याद्वादविट् जनोऽपि कः ? ॥"
--अध्यात्मोपनिषद् , यशोविजयजी।
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