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कहा है कि—
जैन- दर्शन
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“ दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे ।
एतद् नक्तं विजानीयाद् न नक्तं निशि भोजनम् ॥ "
मुहूर्त्तेनं दिनं नक्तं प्रवदन्ति मनीषिणः । नक्षत्रदर्शनान्नक्तं नाहं मन्ये गणाधिप !" ॥
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भावार्थ — दिनके आठवें भागको जब कि दिवाकर मंद हो जाता है - ( रात होने के दो घड़ी पहिलेके समयको ) ' नक्त' कहते हैं । ' नक्त '-' नक्तत्रत ' का अर्थ रात्रिभोजन नहीं है । हे गणाधिप ! । बुद्धिमान् लोग उस समयको 'नक्त' बताते हैं, जिस समय एकमुहूर्त-दो घड़ी - दिन अवशेष रह जाता है । मैं नक्षत्रदर्शन के समयको नक्त नहीं मानता हूँ ।
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और भी कहा है कि:--
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अम्भोदपटलच्छन्ने नाश्नन्ति रविमण्डले ।
अस्तंगते तु भुञ्जाना अहो ! भानोः सुसेवकाः ! " ॥
" ये रात्रौ सर्वदाऽऽहारं वर्जयन्ति सुमेधसः । तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते "
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मृते स्वजनमात्रेऽपि सूतकं जायते किल । अस्तंगते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ?
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ली जाती है। इसी नीतिके अनुसार 'नक्त ' शब्दका मुख्य अर्थ ' रात्रि ' जहाँ घटित नहीं होता हो, वहाँ रात्रिका समीपवर्ती भाग दो घड़ी पहिलेका समय ग्रहण कर लेने में किसी प्रकारको बाधा नहीं आती है । नक्त' शब्दका मुख्य अर्थ रात्रि लेनेसे रात्रिभोजननिषेधक अनेक वाक्य मिथ्या ठहरते हैं, जो हो नहीं सकते । इसलिये ' नक्त ' शब्दका गौण अर्थ ग्रहण कर लेना चाहिये । जहाँ गौण अर्थ लिया जाता है वहाँ यही समझना चाहिये कि मुख्य अर्थ लेनेमें वास्तविक बातको बाधा पहुँचती है ।
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