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जैन-रत्न
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होती है। इस विषयमें किसीका मत विरुद्ध नहीं है । अब हम यहाँ जैनशास्त्रोंकी शैलीके अनुसार इस विषयकी प्रतिपादक न्यायपरिभाषाका संक्षिप्त विवेचन करेंगे।
न्याय-परिभाषा
"प्रमीयतेऽऽनेनेति प्रमाणम्" अर्थात्-जिससे वस्तुतत्त्वका यथार्थ निश्चय होता है उसको प्रमाण' कहते हैं। इससे संदेह, भ्रम और मूढता दूर होते हैं और वस्तु-स्वरूपका वास्तविक प्रकाश होता है । इसीलिए यथार्थ ज्ञानको प्रमाण' कहते हैं। __ प्रमाणके दो भेद हैं, प्रत्यक्ष और परोक्ष । मनसहित चक्षु आदि इन्द्रियोंसे जो रूप, रस आदिका ग्रहण होता है अर्थात् चक्षुसे रूपका जीभसे रसका, नासिकासे गंधका त्वचासे स्पर्शका और कानसे शब्दका जो ज्ञान होता है, वह 'प्रत्यक्ष प्रमाण ' कहलाता है।
व्यवहारमें आनेवाले उक्त प्रत्यक्षोंकी अपेक्षा योगीश्वरोंका प्रत्यक्ष सर्वथा भिन्न होता है । उसको मन या इन्द्रियकी बिलकुल अपेक्षा नहीं रहती है; वह आत्मशक्तिसे ही होता है। ___ अब यहाँ यह विचारना चाहिए कि इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होनेमें, वस्तुके साथ इन्द्रियोंका संयोग होना आवश्यक है या नहीं।
जीभसे रसका आस्वाद लिया जाता है, उसमें जीभ और रसका बराबर संयोग होता है। त्वचासे स्पर्श किया जाता है, उसमें त्वचा और स्पर्य वस्तुका संयोग स्पष्टतया मालूम होता है । नाकसे गंध ली जाती है, उस समय नाकके साथ गंधवाले पदार्थोका अवश्य
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