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जैन-रत्न
कई बार जब बाह्यदृष्टिसे विचार किया जाता है तब महर्षियोंके कितने ही विचार एक दूसरेके प्रतिकूल ज्ञात होते हैं । मगर वे ही विचार, जब उनके मूलमें प्रवेश करके देखे जाते हैं, उनके पूर्वापरका खूब अनुसंधान किया जाता है और सूक्ष्मतासे देखे जाते हैं कि वे परस्परमें सुसंगत कैसे होते हैं ? तब समान जान पड़ते हैं।
प्रमाणकी व्याख्याका विवेचन किया गया । प्रमाणसे जैनशास्त्रोंमें एक ऐसा सिद्धान्त स्थापित किया गया है कि जिसपर विद्वानोंको आश्चर्य उत्पन्न हुए विना नहीं रहता है । मगर उनका वह आश्चर्य उस समय, उड़ ही नहीं जाता है बल्के उस सिद्धान्तकी · तरफ उनकी अभिमुखवृत्ति भी हो जाती है, जब वे उस पर गंभीरतासे विचार करते हैं। उस सिद्धान्तका नाम है- स्याद्वाद ।
स्याद्वाद
स्याद्वादका अर्थ है-वस्तुका भिन्न भिन्न दृष्टि-बिंदुओंसे विचार करना, देखना या कहना । एक ही वस्तुमें अमुक अमुक अपेक्षासे भिन्न भिन्न धर्मोंको स्वीकार करनेका नाम ' स्याद्वाद' है। जैसे एक ही पुरुषमें पिता, पुत्र, चचा, भतीजा, मामा, भानजा आदि व्यवहार माना जाता है, वैसे ही एक ही वस्तुम अनेक धर्म माने जाते हैं । एक ही घटमें नित्यत्व और अनित्यत्व आदि विरुद्ध रूपसे दिखाई देते हुए धर्मोको अपेक्षादृष्टिसे स्वीकार करने का नाम 'स्याद्वाद दर्शन' है। ___एक ही पुरुष अपने पिताकी अपेक्षा पुत्र, अपने पुत्रकी अपेक्षा
पिता, अपने भतीजे और भानकी अपेक्षा चचा और मामा एवं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com