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जैन-रत्न
हम देख गये हैं कि घड़ेका एक स्वरूप विनाशी है और दूसरा ध्रुव । इससे सहजहीम यह समझा जा सकता है कि विनाशी रूपसे घडा अनित्य है और ध्रुव रूपसे घड़ा नित्य है । इस तरह एक ही वस्तमें नित्यता और अनित्यताकी मान्यताको रखनेवाले सिद्धान्तको ' स्याद्वाद' कहा गया है।
स्याद्वादका क्षेत्र उक्त नित्य और अनित्य इन दो ही बातों में पर्याप्त नहीं होता है । सत् और असत् आदि दूसरी, विरुद्धरूपमें दिखाई देनेवाली, बातें भी स्याद्वादमें आ जाती हैं । घडा
आँखोंसे प्रत्यक्ष दिखाई देता है, इससे यह तो अनायास ही सिद्ध हो जाता है कि वह · सत् ' है । मगर न्याय कहता है कि अमुक दृष्टि से वह 'असत् ' भी है।
यह बात खास विचारणीय है कि, प्रत्येक पदार्थ जो 'सत्' कहलाता है किस लिए ? रूप, रस, आकार आदि अपने ही गुणोंसे अपने ही धर्मोसे-प्रत्येक पदार्थ · सत् । होता है । दूसरेके गुणोंसे कोई पदार्थ 'सत्' नहीं हो सकता है। जो बाप कहाता है, वह अपने पुत्रसे, किसी दूसरेके पुत्रसे नहीं । यानी खास पुत्र ही पुरुषको बाप कहता है; दूसरेका पुत्र उसको बाप नहीं कह सकता । इस तरह जैसे, स्वपुत्रकी अपेक्षा जो पिता होता है वही पर-पुत्रकी अपेक्षा अपिता होता है; वैसे ही अपने गुणोंसे-अपने धर्मोसे अपने स्वरूपसे जो पदार्थ 'सत्' है, वही पदार्थ दूसरेके धर्मोसे-दूसरोंमें रहे हुए गुणोसें-दूसरोंके स्वरूपसे · सत् ' नहीं हो सकता है । जब 'सत्' नहीं हो सकता है, तब यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि वह 'असत्' होता है। __ १--अस्तित्व और नास्तित्व ।
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