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जैन-रत्न
___ स्मरणमें पूर्व अनुभव ही कारण होता है; मगर प्रत्यभिज्ञानमें
अनुभव और स्मरण दोनोंकी आवश्यकता पड़ती है । स्मरणमें ऐसा स्फुरण होता है कि 'यह घड़ा है। मगर प्रत्यभिज्ञानमें मालूम होता है कि यह वही घड़ा है'। इससे इन दोनोंकी भिन्नता स्पष्टतया समझमें आ जाती है । खोई हुई वस्तुको देखनेसे, या पहिले देखे हुए मनुष्यको फिर देखनेसे ज्ञान होता है कि 'यह वही है। इसमें 'वही है' स्मरणरूप है और — यह ' उपस्थित वस्तु या मनुष्यका दर्शनस्वरूप अनुभव है। इस अनुभव और स्मरणके संमिश्रणरूप 'यह वही है ' ज्ञानको 'प्रत्यभिज्ञान' कहते हैं।
किसी मनुष्यने, कभी रोझ नहीं देखा था। एक बार किसी गवाल के कहनेसे उसे मालूम हुआ कि रोझ गऊके समान होता है। अन्यदा वह जंगलमें चक्कर लगानेके लिए गया । वहाँ उसने रोझ देखा । उस समय उसको याद आया कि 'रोझ गऊके समान होता है।' यह स्मृति और 'यह' ऐसा प्रत्यक्ष, इस तरह इन दोनोंके मिलनेसे ' यह वही है' ऐसा जो विशिष्ट ज्ञान होता है, वह 'प्रत्यभिज्ञान' है। इस तरह प्रत्यभिज्ञानके
और भी उदाहरण दिये जा सकते हैं। ___ तर्क-जो वस्तु जिससे जुदा नहीं होती, जो वस्तु जिसके विना नहीं रहती, उस वस्तुका उसके साथ जो सहभावरूप ( साथमें रहना रूप ) संबंध है, उस संबंधको निश्चय करनेवाला 'तर्क' है। जैसे-धूआँ अग्निके विना नहीं होता है; अग्निके विना नहीं रहता है। जहाँ धूम्र है वहाँ अग्नि है । धूएँवाला ऐसा कोई प्रदेश नहीं है जहाँ अग्नि न हो । ऐसा धूम्र और अग्निका संबंध, दूसरे
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