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जैन- रत्न
लेकर भिन्न २ घरोंसे लेनी चाहिये । जिससे घरवालों को देनेमें किसी प्रकारका संकोच न हो' । शास्त्रों में यह आज्ञा है, कि कोई साधुके निमित्तसे भोजन न बनावे | यदि कोई बना ले तो साधुओं को वह भोजन नहीं लेना चाहिए ।
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अर्थात् साधु द्रव्यके
साधुओं का धर्म सर्वथा अकिंचन रहनेका है । संबंध से सर्वथा मुक्त होते हैं । यहाँ तक कि वे भोजनके पात्र भी धातुके नहीं रखते; वे काष्ठ, मिट्टी या बड़ीके पात्र उपयोग में लाते हैं ।
चरेद् माधुकरीं वृत्तिमपि म्लेच्छकुलादपि । एकान्नं नैव भुञ्जीत बृहस्पतिसमादपि " ॥
॥ ( अत्रिस्मृति )
भावार्थ - - जैसे भंवरा अनेक फूलों पर बैठकर उनमेंसे थोड़ा थोड़ा रस पी लेता है, और उनको हानि पहुँचाये बिना ही अपनी तृप्ति कर लेता है इसी तरह अर्थात् मधुकर - भँवरे - की वृत्तिसे साधुओं को भी भिन्न भिन्न घरोंसे भोजन लेना चाहिए; ताकि घरवालों को किसी तरहका संकोच न हो। इस विषय में अत्रिस्मृतिकर्ता जोर देकर कहते हैं कि यदि म्लेच्छों के घरसे भी ऐसी शुद्ध भिक्षा लेनी पड़े तो ले लेना चाहिए मगर एकही के घरसे - चाहे वह घर बृहस्पति के समान दाताका ही क्यों न हो - संपूर्ण भिक्षा नहीं लेनी चाहिए ।
२ – “ अतैजसानि पात्राणि तस्य स्युर्निर्व्रणानि च ।
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अलाबु दारुपात्रं च मृन्मयं वैदलं तथा ।
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एतानि यतिपात्राणि मनुः स्वायम्भुवोऽब्रवीत् ॥
( मनुस्मृति, ६ ठा अध्याय, ५३, ५४ श्लोक ) भावार्थ - मनुजी कहते हैं कि साधुओं को संन्यासियों को बिना धातुके और छिद्ररहित पात्र यानी तूमड़ी, काष्ठ, मिट्टी और बाँसके पात्र रखने चाहिए । यतिने काञ्चनं दत्वा तांबूलं ब्रह्मचारिणे । चौरेभ्योऽप्यभयं दत्वा दातापि नरकं व्रजेत् ॥
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( पाराशरस्मृति १ अध्याय, ६० वाँ श्लोक ) भावार्थ -- यतिको साधु संन्यासीको द्रव्य, ब्रह्मचारीको ताम्बूल, और कठोर अपराधीको - चोरको अभय देनेवाला दाता भी नरकमें जाता हैं ।
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