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जैन-दर्शन
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साधुको वर्षा ऋतुमें एक ही जगह रहना चाहिए । साधुको कभी स्त्रीसे स्पर्श नहीं करना चाहिए। ___ संक्षेपमें यह है कि साधुओंको सारे सांसारिक प्रपंचोंसे मुक्त और सदा अध्यात्मरति-परायण रहना चाहिएँ । निःस्वार्थ भावसे जगत् क. कल्याण करना इनके जीवनका मल मंत्र होना चाहिए। १--" पर्यटेत् कीटवद् भूमि वर्षास्वेकत्र संविशेत् ।”
(विष्णुस्मृति ४ था अध्याय, ६ ठा श्लोक ) भावार्थ-कीड़ा जैसे फिरता रहता है, वैसे ही साधुको भी फिरते रहना चाहिए। एक ही स्थानपर स्थिरतासे नहीं रहना चाहिए । दूसरी तरह कहें तो-कीड़ा जैसे आहिस्ता चलता है-सूक्ष्मतासे देखे विना कोई उसकी चालको नहीं जान सकता है, इसी तरह साधुओंको भा घोड़ेकी तरह न चलकर, आहिस्ता आहिस्ता, भूमिकी तरफ देखते हुए जीवदयाकी भावनासहित चलना चाहिए । साधुको वर्षाऋतुमें (चौमासमें ) एक ही जगह रहना चाहिए। २-विष्णुस्मति, ४ थे अध्यायके ८ वें श्लोकमें लिखा है:
“संभाषणं सह स्त्रीभिरालम्भप्रेक्षणे तथा '" भावार्थ--साधुको स्त्रीके साथ न वार्तालाप करना चाहिए और न स्त्रीका निरी... क्षण तथा स्पर्श ही करना चाहिए । ३ साधुओंकी विरक्त दशाके संबंधमें मनुस्मृतिमें लिखा है किः--
" अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन ।”
"क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत् ।”
"भक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति ।" " अलाभे न विषादी स्याद् लाभे चैव न हर्षयेत् । प्राणयात्रिकमात्रः स्याद् मात्रासंगाद् विनिर्गतः ॥" " इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च । अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥"
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