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जैन-दर्शन
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जैनसाधुओंको अग्नि-स्पर्श करनेका या अग्निसे रसोई बनानेका अधिकार नहीं है। साधुओंके लिए आज्ञा है कि, वे भिक्षासेमाधुकरी वृत्तिसे अपना जीवन-निर्वाह करें । भिक्षा एक घरसे न जन्तु कपड़ेमें आ गये; परन्तु यदि वे कपड़ेमें ही रह जाते हैं, तो मर जाते हैं । यह बात हरेक समझ सकता है । इसलिए उस कपड़ेका संखारा ( जलमेंसे आये हुए जन्तु ) वापिस जलहीमें पहुँचा देने चाहिएँ । अर्थात् वह संखारा थोड़े पानी में डालकर उस पानीको वहीं ( उसी कूए या तालाबमें ) पहुँचा देना चाहिए, जहाँसे कि वह पानी आया है। यह बात जैनशास्त्र ही नहीं कहते हैं, बरके हिन्दू-शास्त्र भी कहते हैं । इसी उत्तरमीमांसामें लिखा है किः--
___“म्रियन्ते मिष्टतोयेन पतराः क्षारसंभवाः ।
क्षारतोयेन तु परे न कुर्यात् संकरं ततः" ॥ भावार्थ-मोठे जलके पोरे खारे पानीमें जानेसे और खारे पानीके पोरे मीठे जलमें जानेसे मर जाते हैं, इसलिए भिन्न भिन्न जलाशयोंका जल-जो भिन्न स्वभाववाला हो, छाने विना शामिल नहीं करना चाहिए।" महाभारतमें भी लिखा है किः--
" विंशत्यंगुलमानं तु त्रिंशदंगुलमायतम् । तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य गालयित्वा पिबेज्जलम्" ॥ " तस्मिन् वस्त्रे स्थितान् जीवान् स्थापयेत् जलमध्यतः ।
एवं कृत्वा पिबेत् तोयं स याति परमां गतिम् ॥ भावार्थ-बीस अंगुल चौड़ा और तीस अंगुल लंबा वस्त्र ले, उसको दुगना करना, फिर उससे पानीको छानकर पीना चाहिये और उस वस्त्रमें आये हुए जीवाको जलमें कूए आदिमें डाल देना चाहिए । जो इस तरह छानकर पानी पीता है, वह छाने विना पानी पीनेवालेकी अपेक्षा उत्तम गति पाता है। __इसके अतिरिक्त 'विष्णुपुराण' आदि ग्रंथोंमें भी पानी छानकर पीनेका आदेश. दिया गया है। १-" अनग्निरनिकेतः स्याद्............. ......................
(मनुस्मृति छठा अध्याय ४३ वा श्लोक) भावार्थ-साधु अग्निस्पर्शसे रहित और गृहवाससे मुक्त होते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com