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जेन-रत्न
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जायँ । जैनसाधुओंको खूब गरम किया हुआ ( गरम करनेके बाद यदि ठंडा हो जाय तो कोई हानि नहीं है ) जल पीनेकी आज्ञा है।
१-महाभारतमें लिखा है कि:
"यानारुढं यतिं दृष्ट्वा सचेल स्नानमाचरेत् ” [ अर्थ-संन्यासी यदि सवारी पर चड़ा हुआ दिखाई दे तो स्नान करना चाहिए; पहिने हुए वस्त्र भी धो लेने चाहिएँ] __ इसके अतिरिक्त मनुस्मृति, अत्रिस्मृति, विष्णुस्मृति आदि स्मृतियों और उपनिषदोंमें भी संन्यासियोंको 'विचरेत् । 'पर्यटेत् । 'चरेत् । आदि शब्दोंद्वारा उपदेश दिया गया है कि,-" वे इस प्रकार से विचरण-भ्रमण करें जिससे किसी प्राणीको कष्ट न हो । इससे संन्यासियों के लिए भी पादचारी-पैदल चलनेवाले होना सिद्ध होता है।
२–पाश्चात्यविद्या-विभूषित विद्वान्-डॉक्टर गरम किये हुए पानीमें स्वास्थ्यसंबंधी बहुतसा गुण बताते हैं । वे कहत हैं कि प्लेग, कॉलेरा आदिमें तो खासकरके बहुत ज्यादा उबाला हुआ पानी पीना चाहिए । पाश्चात्य विद्वानोंने शोध की है कि, पानीमें ऐसे अनेक सूक्ष्म जीव होते हैं, जिनको हम आँखोसे देख नहीं सकते हैं; परन्तु वे सूक्ष्मदर्शक ( Microscope ) यंत्रसे दिखाई दे जाते हैं । पानीमें उत्पन्न होनेवाले पोरा आदि जीव, पानी पीते समय शरीरमें प्रविष्ट होकर अनेक व्याधियाँ उत्पन्न करते हैं । पानी, किसी देशका और कैसा ही खराब होने पर भी, यदि उबाल कर पिया जाता है तो वह शरीरको हानि नहीं पहुंचाता है। __ गृहस्थ यदि पानी उबालकर नहीं पी सकते हों, तो भी उनको चाहिए कि, वे छाने बिना पानी न पियें । इस विषयमें सब विद्वानोंका एक ही मत है । मनुजीका यह वाक्य प्रसिद्ध है कि- “वस्त्रपूतं जलं पिबेत्" । उत्तरमीमांसामें लिखा है कि
" षट्त्रिंशदंगुलायामं विंशत्यंगुलविस्तृतम् ।
दृढं गलनकं कुर्याद् भूयो जीवान् विशोधयेत् " ॥ भावार्थ-- छत्तीस अंगुल लंबा और बीस अंगुल चौड़ा छलना ( पानी छाननेका कपड़ा) रखना चाहिए और उससे छना हुआ पानी पीना चाहिए।
इस श्लोकमें “भूयो जीवान् विशोधयेत् " ( फिर जीवोंका परिशोधन करना ) यह वाक्य खास तौरसे ध्यान देने योग्य है। कपड़ेसे पानी छाना; जलके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com