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जैन - रत्न
संसारमें जो मनुष्य सुखी हैं और धर्मयुक्त जीवन बिता रहे हैं, उनके लिए समझना चाहिए कि वे पुण्यानुबंधी पुण्यवाले हैं । जो मनुष्य दरिद्रता के दुःखसे दुःखी होनेपर भी अपना जीवन धर्मयुक्त बिता रहे हैं उनके लिए समझना चाहिए कि वे पुण्यानुबंधी पापवाले हैं। जो सांसारिक सुखों का आनंद लेते हुए पापपूर्ण जीवन बिता रहे हैं, उन्हें पापनुबंधी पुण्यवाले समझना चाहिए और जो दरिद्रताके दुःख से संतप्त होते हुए भी अपने जीवन को मलिनतासे बिता रहे हैं; उनके लिए समझना चाहिए कि वे पापानुबंधी पापवाले हैं ।
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दगा, छल, कपट, प्राणी-वध आदि प्रचंड पापके कार्योंसे धन एकत्रित कर, बँगले, बँधा मौज उड़ाते हुए मनुष्योंको देख कई अदूरदर्शी मनुष्य कहने लगते हैं कि, – “ देखा ! धर्मात्मा तो बड़ी कठिनता से दिन निकालते हैं; मगर पापात्मा कैसी मौज उड़ाते हैं ? अब कहाँ रहा धर्म ? और कहाँ रहा शुभ कर्म ? किसीने ठीक ही कहा है कि:
“ करेगा धरम, फोड़ेगा करम; करेगा पाप, खाएगा धाप । "
मगर यह कथन अज्ञानतापूर्ण है । कारण उक्त कर्म संबंधिनी बातोंसे पाठक भली प्रकार समझ गये होंगे । इस जीवनमें पूर्वपुण्य के बलसे चाहे कोई पाप करता हुआ भी, सुख भोगता रहे, मगर अगले जन्ममें उसको अवश्यमेव इसका फल भोगना पड़ेगा । प्रकृतिका साम्राज्य विचित्र है । उसके सूक्ष्मतत्त्व अगम्य हैं । मोहके अंधकारमें कोई चाहे जितने गौते मारे; चाहे जितनी कल्पनाएँ कर निर्भीक होकर फिरे, मगर यह सदा ध्यान में रखना चाहिए कि आज तक
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