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जैन-रत्न ommmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
गृहस्थोंका आचार ।
अब संक्षेपमें गृहस्थाचारका वर्णन किया जायगा । गृहस्थोंके लिए जैनशास्त्रोंमें षट्कर्म बताये गये हैं।
" देवपूजा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥" भावार्थ-परमात्माकी पूजा, गुरु महात्माकी सेवा, शास्त्रवाचन, संयम अर्थात् गहस्थावस्थाकी योग्यताके अनुसार विषयोंकी तरफ दौड़ती हुई इन्द्रियों पर काबू रखना, तप और दान ये छः कर्म गृहस्थोंका कर्तव्य है।' __इस प्रसंग पर जैनियोंकी एक बातका उल्लेख करना अस्थानमें न होगा।
जैनके आचार-ग्रंथोंमें भक्ष्या-भक्ष्यका बहुत विचार किया गया है। कंदमूल खानेका जैनशास्त्रोंमें निषेध है । रातको भोजन करना आदि भी अकर्तव्य बताया गया है । बाह्य दृष्टिसे देखनेवालोंको यह बात, जितनी चाहिए उतनी अच्छी नहीं लगेगी । और ऐसा होना स्वाभा. विक भी है । परन्तु धर्मशास्त्रोंका यही आदेश है । हिन्दु-धर्माचार्य
भी इस बातको मानते हैं। ___ भावार्थ--स्वयं अपमान सहे मगर किसीका अपमान न करे । क्रोध करनेवाले पर क्रोध न कर उसके साथ नम्रताका व्यवहार करे । भिक्षाके लोभमें फंसा हुआ यति विषयमें डूब जाता है । लाभ होनेपर प्रसन्न न हो और हानि होने पर दुःख न करे । केवल प्राणरक्षाके हेतु भोजन करे; आसक्तियोंसे दूर रहे । इन्द्रिय-निरोध, राग-द्वेषपराजय और प्राणीमात्रपर दया करे । ऐसा करनेहीसे जीव मोक्षमें जाने योग्य होता है।
१--ये षट्कर्म सर्वसाधारणसम्मत-सार्वजनिक (Universal) हैं। इनके अनुसार संसारका हरेक गृहस्थ प्रवृत्ति कर सकता है; और उससे अपनी आत्माको उन्नत बना सकता है।
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