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जैन-दर्शन
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~~~~mmmmmmmmmmm~ " सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मणा नहि बध्यते । दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिपद्यते " ॥ ( छठा अध्याय )
भावार्थ-सम्यग्दर्शनवाला जीव कोंसे नहीं बंधता है और सम्यग्दर्शनविहीन प्राणी संसारमें भटकता फिरता है।
देशविरति-सम्यक्त्वसहित, गृहस्थके व्रतोंको परिपालन करनेका नाम देशविरति है। 'देशविरति ' शब्दका अर्थ है-सर्वथा नहीं मगर अमुक अंशमें पापकर्मसे विरत होना ।
प्रमत्तगुणस्थान-यह गुणस्थान उन मुनिमहात्माओंका है कि जो पंचमहाव्रतोंके धारक होने पर भी प्रमादके बंधनसे सर्वथा मुक्त नहीं होते हैं। ___ अप्रमत्तगुणस्थान-प्रमादबंधनसे मुक्त बने हुए महामुनियोंका यह सातवाँ गुणस्थान है। ___ अपूर्वकरण-मोहनीय कर्मको उपशम या क्षय करनेका अपूर्व (जो पहिले प्राप्त नहीं हुआ) अध्यवसाय इस गुणस्थानमें प्राप्त होता है । ___ अनिवृत्तिगुणस्थान-इसमें पूर्व गुणस्थानकी अपेक्षा ऐसा अधिक उज्ज्वल आत्म-परिणाम होता, है, कि जिससे मोहका उपशम या क्षय होने लगता है।
सूक्ष्मसंपराय-उक्त गुणस्थानों में जब मोहनीयकर्मका क्षय --'करण' यानी अध्यवसाय-आत्मपरिणाम । २- संपराय ' शब्दका अर्थ 'कषाय' होता है; परन्तु यहाँ ' लोभ' समझना चाहिए।
३–यहाँ और ऊपर नीचेके गुणस्थानोंमें 'मोह' 'मोहनीय ' ऐसे सामान्य शब्द रक्खे हैं। मगर इससे मोहनीय कर्मके जो विशेष प्रकार घटित होते हैं उन्हींको यथायोग्य ग्रहण करना चाहिए । अवकाशाभाव यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com