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जैन-रत्न ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मिश्रगुणस्थान-इस गणस्थानकी अवस्थामें आत्माके भाव बड़े ही विचित्र होते हैं । इस गुणस्थानवाला सत्य मार्ग और असत्य मार्ग दोनों पर श्रद्धा रखता है । जैसे जिस देशमें नारियल के फलोंका भोजन होता है उस देशके लोग अन्न पर न श्रद्धा रखते हैं और न अश्रद्धा ही। इसी तरह इस गुणस्थानवालेकी भी सत्यमार्ग पर न रुचि होती है और न अरुचि ही । खल और गुड़ दोनोंको समान समझनेवाली मोहमिश्रित वृत्ति इसमें रहती है । इतना होने पर भी इस गुणस्थानमें आनेके पहिले जीवको सम्यक्त्व हो गया होता है इसलिए, सासादन गुणस्थानकी तरह उसके भवभ्रमणका भी काल निश्चित हो जाता है। __ अविरतसम्यग्दृष्टि-विरत का अर्थ है 'व्रत' । व्रत बिना जो सम्यक्त्व होता है उसको ‘अविरतसम्यग्दृष्टि' कहते हैं। यदि सम्यक्त्वका थोडासा भी स्पर्श हो जाता है , तो जीवके भवभ्रमणकी अवधि निश्चित हो जाती है। इसीके प्रभावसे सासादन
और मिश्र गुणस्थानवाले जीवोंका भवभ्रमण-काल निश्चित हो गया होता है । आत्माके एक प्रकारके शुद्ध विकासको सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि कहते हैं । इस स्थितिमें तत्त्व-विषयक संशय या भ्रमको स्थान नहीं मिलता है। इस सम्यक्त्वहीसे मनुष्य मोक्षप्राप्तिके योग्य होता है । इसके अतिरिक्त चाहे कितना ही कष्टानुष्ठान किया जाय, उससे मनुष्यको मुक्ति नहीं मिलती । मनुस्मृतिमें भी लिखा है कि:
१--जीवाजीवादि तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपमें बुद्धिपूर्वक अटल विश्वास होना 'सम्यक्त्व' है। यह बात पहिले बताई जा चुकी है । इसके अंदर कई सूक्ष्म बातें हैं, परन्तु उनके लिए यहाँ अवकाश नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com