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जैन-रत्न
अपेक्षा विशेष उन्नति पर पहुँचे हुए होते हैं । चौदहवीं श्रेणीके जीव अतिनिर्मल और परम कृतार्थ होते हैं। जीव चौदहवीं श्रेणीमें पहुँचते ही मुक्त हो जाते हैं। सारे जीव प्रारंभमें तो प्रथम श्रेणीमें ही होते हैं, पीछेसे जो अपने आत्मगुणोंको विकसित करनेका प्रयत्न करते हैं वे उत्तरोत्तर श्रेणियों से गुजरते हुए अन्तमें चौदहवीं श्रेणीमं । पहुँच जाते हैं । जिनके प्रयत्नका वेग अतिप्रबल होता है, वे बीचकी श्रेणियोंमें बहुत ही थोडे समयतक रुकते हैं। जिनके प्रयत्नका वेग मंद होता है, वे बहुत समयतक बीचकी श्रेणियोंमें रुकते हैं; फिर तेरहवीं और चौदहवीं श्रेणीमें पहुँचते हैं। ___ यद्यपि यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है, तथापि यदि इसको समझनेकी ओर ध्यान दिया जाता है तो यह बहुत ही अच्छा लगता है । यह आत्मिक उत्क्रांतिकी विवेचना है-मोक्षमंदिरमें पहुँचने के लिए निसेनी है। पहिले सोपानसे-जीनेसे सब जीव चढना प्रारंभ करते हैं और कोई धीरे चलनेसे देरमें और कोई तेज चलनेसे जल्दी चौदहवें जीने पर पहुंचते ही मोक्षमंदिरमें दाखिल हो जाते हैं। कई चढते हुए ध्यान नहीं रखनेसे फिसल जाते हैं और प्रथम सोपान पर आ जाते हैं । ग्यारहवें सोपानपर चढे हुए भी मोहकी फटकारके कारण गिरकर, प्रथम जीने पर आ जाते हैं। इसलिए शास्त्रकार बार बार कहते हैं कि, चलते हुए लेश मात्र भी गफलत न करो । बारहवें जीने पर पहुँचनेके बाद गिरनेका कोई भय नहीं
१-जैन 'उत्तराध्ययन' सूत्रके दसवें अध्ययनमें भगवान् महावीरने गौतम गणधरको इस भावार्थका उपदेश दिया है कि--" गोयम ! मकर प्रमाद "। इसी प्रकारसे और भी बहुत कुछ उपदेश दिया गया है।
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