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जैन-रत्न
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देवतत्त्व।
देव कहो या ईश्वर कहो, बात एक ही है। ईश्वरका लक्षण पहिले बताया जा चुका है। फिर मी थोडासा यहाँ बता देते हैं
" सर्वज्ञो जितरागादिदोषस्त्रैलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥ ( योगशास्त्र)
भावार्थ-जो सर्वज्ञ है, रागद्वेष आदि समस्त दोषोंसे मुक्त है, तीन लोक जिसकी पूजा करता हैं और जो यथार्थ उपदेश देता है वही परमेश्वर' अथवा ' देव ' कहलाता है।
गुरुतत्त्व। " महाव्रतधरा धीरा भैक्षमात्रोपजीविनः । सामायिकस्था धर्मोपदेशका गुरवो मताः " ( योगशास्त्र )
भावार्थ-जो अहिंसा आदि पाँच महाव्रतोंको धारण करते हैं, जो धैर्य गुणसे विभूषित होते हैं, जो भिक्षा-माधुकरीवृत्तिद्वारा अपना जीवननिर्वाह करते हैं, जो समभावमें रहते हैं ओर धर्मका यथार्थ उपदेश करते हैं वे ही — गुरु ' कहलाते हैं। धर्मकी व्याख्या ।
" पंचैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणां । अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् " ॥
. (हरिभद्रसूरिकृत अष्टक ) भावार्थ-सब धर्मोवाले अहिंसा, सत्य, चोरीका त्याग, सन्तोषवृत्ति और ब्रह्मचर्य इन पाँच बातोंको पवित्र मानते हैं; ये बातें सर्वमान्य हैं । धर्मशब्दका अर्थ है:
१ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com