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जैन-दर्शन
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एक परमात्माके अवतार नहीं हैं। वे सब भिन्न भिन्न आत्माएँ हैं। जैनसिद्धान्त यह नहीं मानता कि, आत्मा मुक्त होनेके बाद संसारमें आ जाता है।
प्रारंभमें ऊपर हम यह बता चुके हैं कि जैनशास्त्रोंके विकासकी नींव नवतत्त्व हैं । इसलिए हम नव तत्त्वोंका विवेचन करेंगे। उनके नाम ये हैं-जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निरा, बंध और मोक्ष ।
जीवतत्त्व ।
जैसे हम दूसरी चीजोंको देख सकते हैं, वैसे जीवको नहीं देख सकते । न किसी इन्द्रियकी सहायता ही इसको हमें बता सकती है। इसका ज्ञान हम स्वानुभव प्रमाणसे कर सकते हैं। “ मैं सुखी हूँ दुःखी हूँ" आदि अनुभव जड़ शरीरको नहीं होता। जीवहीको होता है। जीव शरीरसे भिन्न पदार्थ है । यदि शरीर ही जीव माना जाय तो फिर मृत शरीरमें भी ज्ञान होना चाहिए । उसको अग्निमें भी नहीं जलना चाहिए । परन्तु वस्तुस्थिति इसके विपरीत है। ज्ञान, सख, दुःख, इच्छा आदि शरीरमें नहीं होते; इससे सिद्ध होता है कि, इन गुणोंका आधार शरीर नहीं है, बल्के कोई अन्य ही पदार्थ है , उस पदार्थ का नाम आत्मा है । शरीर भौतिक है, जड़ है। क्योंकि यह भूत-समूहका (जैसे, पृथ्वी, जल, तेज और वायुका) बना हुआ पुतला है। जैसे,—घट, पट आदि जड पदार्थोंमें ज्ञान, सुख
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