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जैन- दर्शन
क्योंकि ऐसा कहनेसे तो यह प्रमाणित हो जाता है कि चिकनापन लगने के पहिले आत्मा शुद्धस्वरूपवाला था । मगर शुद्धस्वरूपी आत्माके राग-द्वेषके परिणाम नहीं होते । अगर शुद्धस्वरूपी आत्माके राग-द्वेष के परिणामोंका उत्पन्न होना मानेंगे तो फिर मुक्त आत्माओंके भी राग-द्वेषके परिणामोंका उत्पन्न होना मानना पड़ेगा । भूतकालमें आत्मा शुद्ध था, पीछेसे उसके रागद्वेषरूपी चिकनापन लगा, ऐसा यदि मान लेंगे तो इस आक्षेपको कैसे टाल सकेंगे कि. मुक्त होने पर भी; और शुद्ध होने पर भी जीव फिरसे राग-द्वेष युक्त हो जाता है । इससे यह सिद्ध होता है कि राग-द्वेष के परिणाम आत्मा के साथ पीछेसे नहीं लगे हैं । वे अनादि हैं ।
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स्वर्णके साथ मिट्टी जैसे अनादिकालसे लगी हुई है, वैसे ही कर्म भी आत्मा के साथ अनादिकाल से लगे हुए हैं; और जैसे मिट्टीने स्वर्णकी चमकको ढक रखा है, वैसे ही अनादि कर्म - प्रवाहने भी आत्मा के शुद्ध ब्रह्मस्वरूपको ढक रखा है ।
ऊपर कहा जा चुका है कि, जैसे 'पहिले आत्मा और पीछे कर्मसंबंध' यह बात नहीं मानी जा सकती है वैसे ही यह भी नहीं कहा जा सकता है कि पहिले कर्म और फिर आत्मा; क्योंकि ऐसा कहने से आत्मा उत्पन्न होनेवाला और विनाशी प्रमाणित होता है । इस तरह जब ये दोनों पक्ष सिद्ध नहीं होते हैं; तब यह बात स्वतः सिद्ध हो जाती है कि आत्मा और कर्म अनादि-संगी हैं ।
जैनशास्त्रकारों ने कर्म के मुख्यतया आठ भेद बताये हैं - ज्ञाना-वरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । यह बात नये सिरे से नहीं कहनी पड़ेगी कि आत्माका
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