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जैन-दर्शन
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तो
होता है । मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ यदि शुभ होती हैं, शुभ कर्म बँधते हैं और यदि अशुभ होती हैं तो अशुभ । अतः मुख्यतया मन, वचन और कायकी प्रवृत्तियाँ ही आस्रव होती हैं । मनकी प्रवृत्तियाँ, जैसे, - शुभ विचार और वास्तविक श्रद्धा या अशुभ विचार और अयथार्थ श्रद्धा । वचनकी प्रवृत्तियाँ जैसे, - दुष्ट भाषण या सम्यक् भाषण । शरीरका व्यापार, जैसे, हिंसा, चोरी, व्यभिचार आदि दुष्ट आचरण या जीवदया, परोपकार, ईश्वरपूजन आदि पवित्रा - चरण । श्रीमद् हरिभद्रसूरिमहाराज ' शास्त्रवार्तासमुच्चय' नामक ग्रंथ में लिखते है कि:
" हिंसाऽनृतादयः पंच तत्त्वाश्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वार इति पापस्य हेतवः ॥ विपरीतास्तु धर्मस्य एत एवोदिता बुधैः । "
भावार्थ–हिंसा, असत्य, (चोरी, मैथुन और परिग्रह) ये पाँच; तथा तत्त्वों (जीव, कर्म, परलोक, मोक्ष आदि पदार्थों ) पर अश्रद्धा और कषाय (क्रोध, मान, माया, और लोभ) ये पापके हेतु हैं । इनसे विपरीत ( जीवदया, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच; तथा तत्त्वश्रद्धान और क्षमा, मृदुता, सरलता और संतोष ये चार) धर्मके यानी पुण्यके हेतु हैं । ऐसा ज्ञानियोंने कहा है । इन पुण्यके हेतुओं में या पापके हेतुओंमें मनकी भली या बुरी प्रवृत्तियाँ ही मुख्यतासे कार्य करती हैं, और वचनप्रवृत्तियाँ एवं शारीरिक क्रियाएँ मनोयोगको पुष्ट करने का काम करती हैं, गौणरूप से कर्मबंधका हेतु होती हैं ।
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