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जैन-दर्शन
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निर्जरा
बँधे हुए कर्मोंका खिर जाना 'निर्जरा के नामसे पहिचाना जाता है। यह निर्जरा दो तरहसे होती है। 'मरे जो कर्मोंका बंध है वह छट जाय' इस प्रकार बुद्धिपूर्वक तपस्या या अनुष्ठानसे जो निर्जरा होती है, वह पहिले प्रकारकी निर्जरा कहलाती है। दूसरी निर्जरा है, कर्मोंका, स्थितिके पूर्ण होने पर,-स्वतः खिर पड़ना । पहिली निर्जराका नाम,
जैनशास्त्रोंकी परिभाषामें, सकाम निर्जरा' है और दूसरीका नाम 'अकाम निर्जरा'। वृक्षोंके फल जैसे डाल पर भी पक जाते हैं और प्रयत्नोंसे भी पकाये जाते हैं, इसी तरह कर्म भी स्थिति पूर्ण होने पर स्वतः भी खिर जाते हैं और तपश्चर्यादि क्रियाओंद्वारा भी ये खिरा दिये जाते हैं।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय ये चारों कर्म 'घाति कर्म' कहलाते हैं। क्योंकि ये आत्माके केवलज्ञानादि मुख्य गुणोंको हानि पहुँचानेवाले हैं । इन चार घातिकर्मोंका नाश होने पर केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। यह केवलज्ञान लोक और अलोकके भूत, भविष्यत और वर्तमान, सब पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला है। इस ज्ञानके प्रकाशसे जीव सर्वज्ञ कहलाता है । ये सर्वज्ञ आयुष्य पूर्ण होने पर; यानी आयु कर्म पूर्ण होने पर शेष तीन कर्मोंको, जो आयुकर्मसहित 'अघाति ' या 'भवोपग्रोही' के नामसे पहिचाने जाते हैं, भी नष्ट कर देते हैं। इनके नष्ट होते ही, उनका
१–भव अर्थात् संसार या शरीर; और उपग्राही याने टिका रखनेवाला । शरीरको टिका रखनेवाला।
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