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जैन-रत्न
परमात्माओंको, जिनके मोहरूपी खुजलीका अभाव है, जो निर्मलचैतन्यज्योतिःस्फुरित और स्वाभाविक आनंद मिलता है, वही वास्तविक परमार्थ आनंद है-सुख है । ऐसे परमसुखी परमात्माओंको, शास्त्रकारोंने शुद्ध, बुद्ध, सिद्ध, निरंजन, परमज्योति और परब्रह्म आदि नामोंसे संबोधित किया है। ___ मोक्ष मनुष्य-शरीरसे ही मिलता है । देवता भी देवशरीरसे मोक्षमें नहीं जा सकते हैं। ___ जैनशास्त्रकार 'भव्य' और 'अभव्य' ऐसे दो प्रकारके जीव मानते हैं । अन्तमें मोक्षको-चाहे वह कितने ही भवोंमें क्यों न हो-प्राप्त कर लेनेवाने जीव भव्य' कहलाते हैं और जो जीव 'अभव्य' होते हैं उन्हें कभी मुक्ति नहीं मिलती है । 'भव्य' या 'अभव्य' जवि किसीके बनानेसे नहीं बनते । यह भन्यत्व-अमव्यत्व जीवका स्वाभाविक परिणाम है। मूंगोंमें जैसे घोरडू मूंग होता है, इसी तरह जीवोंमें अभव्य जीव भी होते हैं। मँगोंके पक जाने पर भी जैसे घोरड़ मूंग नहीं पकता है, वैसे ही ' अभव्य ' जीवकी भी संसारस्थिति पूर्ण नहीं होती है। ___ जैनशास्त्रोंके ईश्वरसंबंधी सिद्धान्त खास तौरसे ध्यान आकर्षित करनेवाले हैं । " परिक्षीणसकलकर्मा ईश्वरः " ( अर्थात्जिसके सारे कर्म निर्मूल हो गये हैं वही ईश्वर है ) मुक्त- अवस्थाप्राप्त परमात्माओंसे ईश्वर कोई भिन्न प्रकारका नहीं है । ईश्वरत्व और मुक्ति दोनोंका लक्षण एक है। __जैनशास्त्रकार कहते हैं कि, मोक्षप्राप्तिके कारण सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रका अभ्यास करते करते एक समय ऐसा आता है कि
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