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जैन-दर्शन
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दिग्वत-उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम इन चारों दिशाओं और ऐशान, आग्नेय, नैऋत्य, और वायव्य इन विदिशाओंमें जाने आनेका नियम करना, यह इस व्रतका अभिप्राय है । बढ़ती हुई लोभवृत्तिको रोकनेके लिये यह नियम बनाया गया है। __ भोगोपभोगपरिमाण-जो पदार्थ एक ही वार उपयोगमें आते हैं वे भोग कहलाते हैं । जैसे-अन्न, पानी आदि । और जो पदार्थ बार बार काममें आ सकते हैं वे उपभोग कहलाते हैं। जैसे-वस्त्र, जेवर आदि । इस व्रतका अभिप्राय है कि, इनका नियम करना-इच्छानुसार निरंतर परिमाण करना । तृष्णा-लोलुपता पर इस व्रतका कितना प्रभाव पड़ता है, इससे तृष्णा कितनी नियमित हो जाती है सो अनुभव करनेहीसे मनुष्य भली प्रकार जान सकता है । मद्य, मांस, कंदमूल आदि अभक्ष्य पदार्थों का त्याग भी इसी व्रतमें आ जाता है । शान्तिमार्गमें आगे बढ़नेकी मनुष्य को जब इच्छा होती है, तब ही वह इस व्रतको पालन करता है। इसलिए जिसमें अनेक जीवोंका संहार होता हो, ऐसा पापमय व्यापार नहीं करना भी इसी व्रतमें आ जाता है। ___ अनर्थदंडविरमण- इसका अर्थ है-विना मतलब दंडित होनसे-पापद्वारा बँधनसे बचना । व्यर्थ खराब ध्यान न करना, व्यर्थ पापोपदेश न देना और व्यर्थ दूसरोंको हिंसक उपकरण न देना इस व्रतका पालन है । इनके अतिरिक्त, खेल तमाशे देखना, गप्पें लड़ाना, हँसी दिल्लगी करना आदि प्रमादाचरण करनेसे यथाशक्ति बचते रहना भी इस व्रतमें आ जाता है।
१--जहाँ दाक्षिण्यका विषय हो, वहाँ गृहस्थको खेत, कूए आदि कार्योंके लिए उपदेश या उपकरण देनेका इस व्रतमें प्रतिबंध नहीं है।
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