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जैन-दर्शन
ही स्वभावतः ऊर्ध्वगति करता है । मगर यहाँ यह विचारणीय है कि, आत्मा कहाँतक ऊर्ध्वगति कर सकता है, कहाँ जाकर वह ठहर सकता है । इसका निबटेरा धर्म-अधर्मद्वारा विभानित लोक
और अलोक माने विना नहीं होता । धर्म द्रव्य गतिमें सहायक है, इसलिए कर्ममलरहित जीव, जहाँतक धर्म द्रव्य है, वहींतक जाता है और लोकके अग्रभागमें जाकर स्थित हो जाता है। वह आगे नहीं जा सकता । कारण आगे सहायक पदार्थ धर्मका अभाव है। यदि धर्म और अधर्म पदार्थ न हों और उनसे होनेवाला लोक व अलोकका विभाग न हो तो कमरहित बना हुआ आत्मा ऊपर कहाँतक जायगा, कहाँ स्थित होगा ? इन प्रश्नोंका बिलकुल उत्तर नहीं मिलता है।
पुगल
परमाणुसे लेकर घट, पट आदि सारे स्थूल-अतिस्थूल रूपी पदार्थोंको ‘पुद्गल ' संज्ञा दी गई है । 'पूर ' और 'गल् ' इन दो धातुओंके संयोगसे 'पुद्गल' शब्द बना है। 'पूर' का अर्थ पूर्ण होना, मिलना और ‘गल्' का अर्थ गलना, खिर पड़ना, जुदा होना होता है। इसका अनुभव हमें अपने शरीरसे और दूसरे पदार्थोंसे होता है। परमाणुवाले छोटे मोटे सब पदार्थों में परमाणुओंका घटना, बढ़ना होता ही रहता है । अकेला परमाणु मी, स्थूल पदार्थ से मिलता और अलग होता है, इसलिए 'पुद्गल' कहला सकता है।
काल इसको हरेक जानता है । नई चीन पुरानी होती है और पुरानी चीन नई होती है । बालक युवा होता है, युवा वृद्ध होता है।
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