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जैन-दर्शन
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अरूपी हैं । अन्यदर्शनी विद्वानोंको, संभव है कि ये दोनों पदार्थ नवीन मालूम हों; मगर जैनशास्त्रकारोंने तो इनके विषयमें बहुत कुछ लिखा है। आकाशको अवकाश देनेके लिए अन्य दर्शनवाले भी उपयोगी समझते हैं; मगर आकाशके साथ धर्म और अधर्मको भी जैनशास्त्रकार उपयोगी समझते हैं।
गमन करते हुए प्राणियोंको और गति करती हुई जड़ वस्तुओंको सहायता करनेवाला जो पदार्थ है, वह 'धर्म' है । जैसे जलमें फिरनेवाली मछलीको चलनेमें जल सहायता देनेवाला निमित्त माना जाता है इसी भाँति जड़ और जीवोंकी गतिमें भी किसीको निमित्त मानना आवश्यक है-न्यायसंगत है। यह निमित्तकारण 'धर्म' है । अवकाश-प्राप्तिमें जैसे आकाश सहायक समझा जाता है, वैसे ही गति करनेमें 'धर्म' सहायक समझा जाता है।
अधर्म
जड और जीवोंकी स्थितिमें 'अधर्म' पदार्थका उपयोग होता है । गति करनेमें जैसे 'धर्म' सहायक है उसी तरह स्थितिमें भी कोई सहायक पदार्थ जरूर होना चाहिए । इस न्यायसे 'अधर्म, पदार्थ सिद्ध होता है । वृक्षकी छाया जैसे स्थिति करनेमें निमित्त होती है, वैसे ही नड और जीवोंकी स्थितिमें ' अधर्म' पदार्थ निमित्त होता है।
हिलना, चलना या स्थित होना, इसमें स्वतंत्र कर्ता तो जड और जीव स्वयं ही हैं; अपने ही व्यापारसे वे चलते फिरते और स्थिर होते हैं, परन्तु इसमें सहायककी भाँति किसी अन्य पदार्थकी अपेक्षा अवश्य होनी चाहिए;-वर्तमान वैज्ञानिक भी ऐसा ही मानते हैं;
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