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जैन-रत्न -~~~~~~~~~mmmmmm~~~~~~~ मगर अभीतक वे किसी खास पदार्थको स्थिर नहीं कर सके हैं;-इसलिए जैनशास्त्रोंने वे पदार्थ 'धर्म' और ' अधर्म' बताये हैं।
आकाश
यह प्रसिद्ध पदार्थ है । दिशाओंका भी इसीमें समावेश होता है। लोकसंबंधी आकाश लोकाकाश और अलोकसंबंधी आकाश अलोकाकाशके नामसे पहिचाना जाता है । इस लोक और अलोकका विभाग करनेमें खाप्स कारण यदि कोई है तो वह, धर्म और अधर्म ही है। ऊपर नीचे और इधर उधर जहाँतक धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, वहाँतकका स्थान — लोक ' माना जाता है और जहाँ ये दोनों पदार्थ नहीं हैं वहाँका प्रदेश ' अलोक' माना जाता है। इन दो पदार्थों को लेकर ही लोकमें जड और चेतनकी क्रिया हो रही है, अलोकमें ये दोनों पदार्थ नहीं हैं । इसलिए वहाँ न एक भी जीव है और न एक भी परमाणु । लोकमसे कोई भी जीव या परमाणु अलोकमें नहीं जा सकता है, इसका कारण, वहाँ धर्म और अधर्मका अभाव है; दूसरा नहीं । तब अलोकमें है क्या ? कुछ नहीं । यह केवल आकाशरूप है। जिस आकाशके किसी भी प्रदेशमें, परमाणु, जीव या कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, ऐसे शुद्ध आकाशका नाम 'अलोक ' है। ___ उपर्युक्त प्रकारसे धर्म और अधर्म पदार्थोद्वारा लोक और अलोकका जो विभाग बताया गया है वह अगले कथनसे भी प्रमाणित होता है । जैनशास्त्र मानते हैं कि, सब कर्मोंका क्षय होनेसे जीक ऊपरकी ओर गति करता है। इस विषयमें तूंबीका उदाहरण दिया जाता है। जैसे पानीके अंदर रही हुई तूंबी मैलके हट जानेसे एक. दम जलके ऊपर आ जाती, है वैसे आत्मा भी कर्मरूपी मलके हटते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com