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जैन-दर्शन
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तत्त्वज्ञ महात्मा इसका नियामक कर्मको बताते हैं; वे इससे कर्म की सत्ता साबित करते हैं । कर्मकी सत्ता साबित होनेपर आत्मा स्वयं ही सिद्ध हो जाता है। कारण यह है कि, आत्माको सुखदुःख देनेवाला कर्मसमूह है । यह समूह अनादिकालसे आत्मा के साथ लगा हुआ है | इसीसे आत्माको संसारमें परिभ्रमण करना पड़ता है । जब कर्म और आत्माका निश्चय हो जाता है तो फिर परलोक के निश्चय होने में कोई रुकावट नहीं रहती । जीव जैसा शुभ या अशुभ कर्म करता है वैसा ही फल उसको परलोकमें मिलता है । जैसी भली या बुरी क्रिया की जाती है, वैसी हो वासना आत्मामें स्थापित होती है । यह वासना क्या है ? विचित्र परमाणुओंका एक जत्था मात्र । यही जत्था ' कर्म ' के नाम से पुकारा जाता है। यानी एक प्रकार के परमाणुसमूहका नाम ' कर्म ' है । ये कर्म नवीन आते हैं और पुराने चले जाते हैं
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भली या बुरी क्रियासे जिन कर्मोंका बंध होता है, वे कर्म परलोक तक प्राणी के साथ जाते हैं । इतना ही नहीं, कई तो अनेक जन्मों तक अपने उदयमें आनेका समय नहीं मिलनेसे वे वैसे ही आत्मा के साथमें रहते हैं और समय आनेपर विपाक - समयमें आत्माको भले या बुरे फलोंका अनुभव करवाते हैं । जबतक फलविपाकको भोगानेकी उनमें शक्ति रहती है तबतक वे आत्माको फल भोगाते रहते हैं । उसके बाद वे आत्मा से अलग हो जाते हैं ।
उक्त युक्तियों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि, आत्मसत्ता, इन्द्रियों से और शरीर से भिन्न है; स्वतंत्र है ।
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