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जैन - रत्न
बरसकी होगी । उस समय स्त्री छः बरसकी उम्र में गर्भधारण करेगी और प्रसव के समय अत्यंत दुःखी होगी । सोलह बरसकी उम्र में तो वह बहुत से बाल बच्चों वाली होगी और वृद्धा गिनी जायगी ।
वैताढ्य गिरिके नीचे उसके पास बिलों में लोग रहेंगे । गंगा और सिंधु दोनों नदियों के तीरपर वैताढ्य के दोनों तरफ नौ नौ बिल हैं कुल बहत्तर बिल हैं, उनमें रहेंगे । तिर्यच जाति मात्र बीज रूपसे रहेगी । उस विषम कालमें मनुष्य और पशु सभी मांसाहारी, क्रूर और अविवेकी होंगे । गंगा और सिंधु नदी प्रवाहमें बहुत मछलियाँ और कछुए होंगे । उनका पाट बहुत छोटा हो जायगा । लोग मछलियाँ पकड़कर धूपमें रक्खेंगे । धूपकी गरमी से वे पक जायँगी । उन्हींको लोग खायँगे । इस तरह उनका जीवन निर्वाह होगा । कारण उस समय अन्न, फल, दूध, दही वगैरा कोई भी खानेकी चीज नहीं मिलेगी । शैया, आसन वगैरा सोने बैठनेके पदार्थ भी न रहेंगे ।
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भरत और ऐरावत नामके दसों ' क्षेत्रों में इसी तरह पाँचवाँ और छठा आरा इक्कीस, इक्कीस हजार बरस तक रहेंगे । अवसर्पिणीमें जैसे अंत्य (छठा ) और उपांत्या ( पाँचवाँ ) आरा होते हैं, वैसे ही उत्सर्पिणीमें अंत्य ( पहळा ) और उपांत्य ( दूसरा ) आरा होते हैं ।
“ उत्सर्पिणीमें दुःखमा दुःखमा नामका ( अवसर्पिणी कालके छठे आरे जैसा) पहला आरा होगा ।
उत्सर्पिणी कालके आरे इस आरेके अंतमें पाँच जातिके मेघ बरसेंगे । हरेक जातिका मेघ सात
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