________________
४२६
जैन-रत्न
" तीर्थकर जब विचरण करते हैं तब यह भरतक्षेत्र सब
तरह समृद्ध और सुखी होता है: । ऐसा तीर्थकर विचरण करते जान पड़ता है मानों यह दूसरा स्वर्ग है। हैं तब कैसी हालत इसके गाँव शहरों जैसे, शहर अलकापुरी रहती हैं ? जैसे, कुटुंबीजन राजाके जैसे, राजा
कुबेरके भंडारी जैसा, आचार्य चंद्रके जैसे, पिता देवके जैसे, सासु माताके समान और ससुर पिताके समान होते हैं । लोग सत्य और शौचमें तत्पर, धर्माधर्मके जाननेवाले, विनीत, देवगुरुके भक्त और स्वदारासंतोषी ( अपनी स्वीके सिवा सभी स्त्रियोंको अपनी माँ बहन समझनेवाले ) होते हैं । उन लोगोंमें, विज्ञान विद्या
और कुलीनता होते हैं । परचक्र, ईति और चोरोंका भय नहीं होता है, न कोई नया कर ही डाला जाता है । ऐसे समयमें भी अरिहंतकी भक्तिको नहीं जाननेवाले और विपरीत वृत्तिवाले कुतीर्थियोंसे मुनियोंको उपसर्ग होते ही रहते हैं और दस आश्चर्य भी होते हैं। __" इसके बाद दुःखमा नामक पाँचवें आरे मनुष्य कषायोंसे
लुप्त धर्मबुद्धिवाले और वाड़ बिनाके पाँचवाँ आरा खेतकी तरह मर्यादा रहित होंगे ।
जैसे जैसे पाँचवाँ काल आगे बढ़ेगा वैसे ही वैसे लोग विशेष रूपसे कुतीर्थियों द्वारा की गई, भ्रमित बुद्धिवाले अहिंसाके त्यागी होंगे। गाँव स्मशानके जैसे, शहर प्रेतलोक जैसे, कुटुंबी दासोंके जैसे और राजा यमदंडके जैसे
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com