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जैन-रत्न
धरणीजट नंदिभूति और शिवभूतिको विद्या पढ़ाता था। कपिलकी तरफ कभी ध्यान भी नहीं देता था । परन्तु कपिल बुद्धिमान था-मेधावी था इस लिए वह उसका बाप जो कुछ यशोभद्राके लड़कोंको पढ़ाता था उसे ध्यानपूर्वक सुनकर पाठ कर लेता था । इस तरह कपिल पढ़कर धरणीजटके समान दिग्गज विद्वान हुआ।
विद्वान कपिल, निज शहरमें, विद्वान होते हुए भी, अपना अपमान होता देख, वहाँसे विदेशोंमें चला गया । दासीपुत्र समझकर धरणीजटने उसे जनेऊ न पहनाई, इसलिए उसने अपने आप यज्ञोपवीत धारण किया। चारों तरफ कपिलकी विद्वत्ताकी धाक बैठ गई । जहाँ जाता वहींके विद्वान लोग उसका आदर करते । कपिल फिरता फिरता रत्नपुर नगरमें पहुँचा । वहाँ सत्यकी नामका एक विद्वान ब्राह्मण रहता था उसके यहाँ अनेक विद्वान शिष्य पढ़ते थे । कपिल सत्यकीकी पाठशालामें गया। शिष्योंने उससे अनेक प्रश्न पूछे । कपिलने सबका यथोचित उत्तर दिया । सत्यकीने भी शास्त्रोंके अनेक गूढाशय पूछे । कपिलने सबका आशय भली प्रकार समझाया । इससे सत्यकी बड़ा खुश हुआ । उसने कपिलको, आग्रह करके अपने यहाँ रखा और अपनी शालाका मुख्य अध्यापक बना दिया । 'गुणोंकी कदर कहाँ नहीं होती है ? ' सत्यकीका अपने पर प्रेम देख कपिल उसकी बड़ी सेवा करने लगा। उसके कामका सभी बोझा उसने उठा लिया।
एक बार सत्यकीकी पत्नी जंबूकाने कहा:-"देखिये, अपनी
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