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जैन-रत्न ~~~ ~~~~~~
पार्श्वकुमार भी कठके पास पहुँचे । वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि, उसके चारों तरफ बड़ी बड़ी धूनियाँ हैं । उनमें बड़े बड़ें लकड़ोंसे आग्निशिखा प्रज्वलित हो रही है । ऊपरसे सूरजकी तेज धूप झुलसा रही है, और कठ पाँचों तरफकी तेज आगको सहन कर रहा है । लोग उसकी उस सहन शक्तिके लिए धन्य धन्य कर रहे हैं और भेट पूजाएँ ला लाकर उसके आगे रख रहे हैं।
पार्थकुमारने अवधिज्ञानसे देखा कि, इन लकड़ों से एक लकड़ेमें सर्प झुलस रहा है। वे बोले:-" हे तपस्वी ! तुम्हारा यह कैसा धर्म है कि, जिसमें दयाका नाम भी नहीं है। जैसे जलहीन नदी निकम्मी है और चन्द्रहीन रात्रि निकम्मी है इसी तरह दयाहीन धर्म भी निकम्मा है । तुम तप करते हो
और इसमें जीवोंका संहार करते हो । यह तप किस कामका है ?" ___ कठ बोला:-"राजकुमार तुम घोड़े कुदाना और ऐयाशी करना जानते हो । धर्मके तत्वको क्या समझो ? और मुझपर जीवोंको मारनेका दोष लगाना तो तुम्हारी अक्षम्य धृष्टता है !"
पार्श्वकुमारने अपने आदमीको आज्ञा दी:-" इस धूनमिसे वह लकड़ निकालकर चीर डालो।" नौकरने आज्ञाका पालन किया। उसमेंसे एक तड़पता हुआ साँप निकला । कुमारने उसको नवकार मंत्र सुनवाया और पच्चखाण दिलाया । सर्प मरकर नवकार मंत्रके प्रभावसे भुवनपतिकी नागकुमार निकायमें, धरण नामका, इन्द्र हुआ।
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