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जैन-रत्न mmmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmm.
पश्चात्ताप करता हुआ वहाँसे चला गया। प्रभुको उपसर्ग रहित हुए समझ धरणेंद्र भी प्रभुको नमस्कार कर अपने स्थानपर चला गया । सवेरा हुआ और प्रभु वहाँसे विहार कर गये। __ प्रभु विचरते हुए बनारसके पास आश्रमपद नामके उद्यानमें आये और धातकी वृक्षके नीचे कायोत्सर्ग करके रहे। वहाँ उनके घाति कर्मोंका नाश हुआ और चेत वदि चौथके दिन, चंद्र जब विशाखा नक्षत्रमें था, उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। दीक्षा लेनेके चौरासी दिन बाद प्रभुको केवलज्ञान हुआ । इन्द्रादि देवोंने प्रभुका केवलज्ञानकल्याणक किया।
राजा अश्वसेनको प्रभुके समवसरणके समाचार मिले । अश्वसेन वामादेवी और परिवार सहित समवशरणमें आये। प्रभुकी देशना सुनकर अश्वसेनने अपने छोटे पुत्र हस्तिसेनको राज्य देकर दीक्षा ली । माता वामादेवीने और पार्थप्रभुकी भार्या प्रभावती देवीने भी दीक्षा ली।
प्रभुके शासनमें पार्थ नामक शासनदेव और पद्मावती नामा शासन देवी थे। उनके परिवारमें आर्यदत्त वगैरा दस गणधर, १६ हजार साधु, ३८ हजार साध्वियाँ, ३५० चौदह पूर्वधारी, १ हजार ४ सौ अवधिज्ञानी, साढ़े सात सौ मनापर्ययज्ञानी, १ हजार केवली, ११ सौ वैक्रिय लब्धिवाले, १ लाख ६४ हजार श्रावक और ३ लाख ७७ हजार श्राविकाएँ थे।
अपना निर्वाण समय निकट जान भगवान सम्मेत शिखर ‘पर गये । वहाँ तेतीस मुनियोंके साथ अनशन ग्रहण कर,
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